Saturday, 29 March 2014

दलित कहानी और स्वानुभूति

दलित साहित्य में स्वानुभूति को व्यक्त करने पर अधिक बल दिया गया है। हिन्दी साहित्य में अन्य विधाओं के साथ – साथ कहानियाँ भी विशेष दस्तावेज के रूप में सामने आती दिखाई देती है। यह कहानियाँ घडाई नहीं है। बल्की इन्हे दलितों के सामाजिक जीवन से उठाई गई है। दलित सामाजिक जीवन को वाणी देते हुए हरपाल सिंह कहते है की “सामाजिक यथार्थ को ध्वनित करने वाली कहानियाँ ही दलित साहित्य में ऊर्जा की सार्थक तरंगे उठा सकी है। यह निर्विवाद सत्य है की भारतीय समाज जातीय दृष्टि से विभाजित समाज है”।१इसी विभाजन ने मनुष्य की विवेक शक्ति तथा समानता को नष्ट कर दिया है। अपने देश में सामाजिक भेदभाव में उच्च समझनेवाले वर्ग ने सामाजिक जीवन में हीनता बोध पैदा करके तमाम ऐसे कार्य किया हैं जिससे दलित समाज का जीवन निकृष्टतम होता गया।

भारतीय समाज में दलित वर्ग के लिए किसी रूप में दो बातें सदा जूड़ी है। वह है शोषण और अपमाण। फिर चाहे वह दलित समाज का व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित अपमान होना निश्चित है। इससे भी भयानक स्थिति यह है की अपनी स्वार्थ पूर्ति होने तक हिन्दू समाज इस दलित समाज को अपने ही समाज का एक हिस्सा समजता है और बातों में इन्हे पूसलाने का काम भी करता है । परंतु काम पूरा होते ही वह तुरंत अपना रंग बदल लेता है और उन्हे दूर करता है। ‘रूप नारायण सोनकर की कहानी ‘सद्गती’ में इस सवर्ण मानसिकता का पर्दापाश हुआ है’। 

भूमंडलिकरण के इस दौर में समानता और मानव अधिकार की बात चल रही है। ऐसे में जाति प्रथा का अस्तित्व जारी रहना वाकई शर्मनाक है। समानता के प्रति आज के परिप्रेक्ष्य में चिंता एवं चिंतन दोनों का विषय बना हुआ है। अच्छे एवं स्वस्थ समाज के लिए समानता की अति आवश्यक्ता है। ऐसी स्थिति में साहित्य के माध्यम से आंतरिक अनुभूति व्यक्त होना स्वाभाविक है। इस तरह की स्थिति पर डा. पशुपतिनाथ लिखते है “दलित साहित्य का स्वरूप एक क्रांतिकारी परिर्वतन एवं मौलिक समानता का संघर्ष बनता जा रहा है। यह संघर्ष आज का नहीं बल्कि जब से पिछडे दलित है तब से उनकी समस्या पर विचार का क्रम चल रहा है। फिर भी सवर्ण मानसिकता बदली हुई दिखाई नहीं देती ।अनपड़ तो अनपड़ पढे़ लिखे लोग भी इनसे अपमान जनक बाते बोलने में पिछे नही हटते। शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ दलितों ने अपनी प्रगति करना शुरू किया उतना ही उनका विरोध भी शुरू हुआ”२। इस तरह की अपमान जनक स्थिति का चित्रण चंद्रभान यादव की कहानी ‘गाम्धी जयंती’ में हुई है। किसी भी महान पुरूष की जयंती या पुण्यतिथि को मनाने का मुख्य हेतु यह होता है की उनके कार्य, त्याग बलिदान, साथ हि उनके चिंतन एवं दर्शन को याद करके उस राह पर चलनेकी कोशिश करना । ऐसी बातों पर भाषण देना आसान है परंतु उस पर अमल करना बहुत कठिन है। 

समाज में निरंतर परिर्वन होता रहता है। इसके साथ सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। इस गतिशिल सामाजिक परिवर्तन की एक छाप हमें साहित्य में देखने को मिलती है। विश्व में मानवतावादीयों ने धर्म तथा रूढ़ियों और परंपराओं को त्यागते हुए सभी मानवों को एकता के सुत्र में बांधकर संपूर्ण मानव को ही अपना केंद्र घोषित किया है। साथ ही अमानवीयता का घोर विरोध करते हुए उन्होने नवीन विचार धारा को जन्म दिया है। परंतु भारत जैसे देश में परंपरावादी दृष्टिकोन रखने वाली समाज के मन पर उसका असर अभी पूरी तरह से नहीं हुआ है। गौर से देखा जाय तो परंपरावादी विचारों को बढ़ावा देने का काम कही – कही दलित समाज भी करता है। परंतु इसके पीछे उनकी कुछ एक मजबुरियाँ भी हुआ करती है। जैसे आर्थिक कमजोरी और अशिक्षा भी एक है। सरकार की तरफ से जो सुविधा मिलती है उसका पूरा लाभ यह समाज उठा नहीं पाता है। कारण इनमें एकता की कमी है। वर्तमान समय में भले ही दलितों में कुछ संघटनाएँ बनी हैं परंतु उन्हे भी तोड़ने की कोशिश सवर्ण समाज करता आया है। इतना ही नहीं वह उसमें सफल भी होता है। क्योंकि उनके हतकंडे उतने मजबूत है। धर्मेंद्र कुमार की कहानी ‘मुखिया’ में उर्पयुक्त विचार धारा की सत्यता पाई जाती है। कहानी में दलित चमारों के जीवन गाथा का चित्रण काफी मर्म स्पर्शी हुआ है। इनके जीवन की वास्तविकता को दर्शाते हुये कहानीकार ने एक जगह कहा है “नीच जातियों में एकता का अभाव होता है। क्योंकि वह अशिक्षित होते हैं। बडे लोगों की चालों को समझ नहीं पाते है। जिनके पास हजारों रोटींयाँ है, वह एक रोटी खाने का गम नहीं करेंगा, किंतु एक रोटी वाला व्यक्ति जान पर खेल जाय तो कोई आश्यर्य नहीं। सदा की भाँती यहाँ भी उच्च जाति ने निम्न जाति को विखंडित करने में पूर्ण महारत हासिल की थी”।३ दलितों की स्थिति का यह सच्चा चित्र है जो देश के किसी भी कोने में बसे दलित पर लागू होती है। 

हिन्दी के साहित्यकार और चिंतक सामाजिक समस्याओं के प्रति सदैव जागरूक रहें है। दलित जीवन संबंधी अधिकांश कहानियाँ किसी न किसी समस्या को लेकर ही लिखी गई है। वास्तव में इन समस्याओं का मूल कारण यही हो सकता हैं की दलितों के विकास के प्रति सर्वण समाज की उदासीनता और सवर्ण के साथ बराबरी की तिरस्कार की भावना। जयप्रकाश कर्दम की कहानी ‘मोहरे’ उपर्युक्त बातों के लिए खरी उतरती है। कहानी में बच्चों का भविष्य बनाने के लिए पूरे मनोयोग और निष्ठा के साथ अपनी सेवा निभाने वाले प्रामाणिक अध्यापक सत्यप्रकाश के स्थानांतरण के लिए सवर्ण अध्यापक रामनरेश त्रिपाठी तथा अन्य अध्यापकों ने जो रास्ता अमनाया वह शिक्षकी पेशा के लिए एक दाग है। 

हिन्दी साहित्य के अंतर्गत दलित जीवन संबंधी जो कहानियाँ लिखी गई, और लिखी जा रही हैं उनमें अधिक तर जोर सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकता को दर्शाना रहा है। वर्तमान समाज में जो भी अपमान भरा असंतोष जनक वातावरण भरा है उसे दर्शाने में वर्तमान कहानियाँ कटीबध्द है। इस संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह मनुष्य का ही एक लघु रूप होता है । परंतु हिन्दु समाज में बनी जाति-धर्म की विचारधारा या मान्यताओं के अनुसार उसका रूप बदलने में देर नहीं लग जाती। बहुत कम समय में वह किसी जाति या धर्म का हो जाता है। और इसी के साथ समाज में उसके उच्च -निच्च होने का स्थान भी तय हो जाता है। इसी विचार या परंपरा के चलते भविष्य में भी उसके कर्म श्रेष्ठ होने पर भी जाति के आधार पर शोषण किया जाता है। मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘दर्द’ इसी परंपरागत विचारधारा का रेखांकन करती है। कहानी में स्वतः लेखक ने एक जगह पर कहा है “जो समाज में नियम था वही सरकार में भी था”।४ कहानी में हरभजन एक राज्य सरकारी की नोकरी करता है । वह उसे विरासत में मिली थी । उनके पिता भी वही काम करते थे। उनकी मृतु एक दुर्घटना में हुई थी । तो हरभजन को चपरासी के बदले चपरासीगरी ही मिली । उस समय उनकी शिक्षा मैट्रिक थी। परंतु उनको वह नियम बताया गया और पदोन्नती का आश्वासन दिया गया। काम पर हाजिर हुए पहले दिन ही कार्यालय के बड़े बाबू से तिरस्कार भरी बात सूनने को मिली थी। उनका कहना था “चपरासी के बेटे होकर चपरासी नहीं बनोगे तो क्या लाट साहब बनोगे?”५ इस तरह की शुरवात हुई उस नौकरी का अंत भी सुखात्मक नही हुआ। जब हरभजन ने अपनी पदोन्नती के लिए कोशिश की तब उसे मुख्यालय से सफलता मिलती है । लेकिन बडे बाबू शर्मा उसके रास्ते का कांटा बन जाते है। उसके पदोन्नती के पत्र को उन्होने रोख रखा था। पूछताछ के समय बड़े बाबू शर्मा उनके सारे वजूद को हिलाकर रख देते है। इससे पता चलता है की जाति के सवाल कितने निर्मम होते है। “बडे बाबू शर्मा कहते है हरभजन मेरे जीते जी तू इस ऑफिस में बाबू नहीं बन सकता। चपरासगीरी कर और अपने बच्चों को पाल”।६ उनकी दर्द भरी बाते सुनकर हरभजन हताश हो जाता है। उनके मन में रह- रह कर यही सवाल आता है की ‘उसके पिता चपरासी, वह चपरासी, क्या उनका बेटा भी चपरासी ही बनेगा? इसी सोच के कारण हरभजन के सीने में तेज दर्द उठता है। यह दर्द उनके शरीर को हमेशा के लिए ठंडा कर देता है। उच्चता के उन्माद में भरे सवर्ण अधिकारी की बाते एक व्यक्ति के जीवन कोही पूरी तरह से खत्म कर देती है। 

२१वीं सदी के प्रथम दशक की कहानियों में सामाजिक समानता एवं मानवीय संवेदना का चित्रण हैं। जिस में सामाजिक अंर्तविरोधों की तिव्र समझ, पारंपारिक आस्थाओं एवं अंधविश्वासों का विखंडन संप्रदाय की घृणित अभिव्यक्ति मानवता शून्य समाज की कटू आलोचना तथा दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति, शोषकों के प्रति तिव्र आक्रोश सामाजिक यथार्थ में मानवता की और सामाजिक परिवर्तन आदि की माँग है। 

इस दशक की कहानिकारों ने सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विद्रुपताओं को अपनी कहानी का कथ्य बनाया है। उच्चता के उन्माद में घिरे हुए सवर्ण व्यक्ति की अमानवियता का चित्रण ‘डंक’ कहानी में रत्न कुमार सांभरिया ने प्रस्तुत किया है। “मनु की उक्ति है, शूद्र का धन संचय ब्राह्मण को पिड़ा पहुचाता है”।७ प्रस्तुत कहानी में यह उक्ति गाँव के कुटिल बाह्मण सतना के दिमाग को टटोलकर जागृत करती है। वास्तव में सतना दरिद्र ब्राह्मण था। अपनी बेटी का विवाह करने योग्य परिस्थिति भी उसकी नहीं थी। ऐसे में धनवान दलित खरे उसे पैसे की मदद करता है। परंतु सतना इस एहसान को बहुत जल्दी भूल जाता है। साथ पैसे लौटाने के बदले दलित खेरा को पिटवाकर कमर तोड देता है। 

अपने देश में दलित जन जाति पर अत्याचार और अन्याय की एक लंबी दास्तान पाई जाती है। देश तो आझाद हुआ, परंतु कुछ एक अपवादों को छोडकर आज भी परंपरावादी उच्चता का उन्माद भरनेवाले सवर्ण जनों के चंगुल से पिछड़ी दलित जन-जातियों को आझादी नहीं मिली है। आज भी कुछ एक मामलों में अपना वर्चस्व बनाने की भरपूर कोशिश करते हैं। भारत रत्न डा. बाबासाहेब अंबेडकर के प्रयत्न स्वरूप प्रशासनिक बल मिला है। साथ ही शिक्षा के कारण दलितों में काफी मात्रा में परिवर्तन आ गया है। इस परिवर्तन के साथ वर्तमान में सवर्ण समाज के युवा भी जुड़ गए हैं। वह अपने आप में परिवर्तन करके दलितों के साथ, हाथ मिलाने के साथ- साथ घनिष्ठ मित्र भी बने हुए है। परंतु कुछ पुरान पंथी अभी भी अपनी घिसी-पीठी परंपरा से बाज नहीं आए हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानी ‘ब्रह्मास्त्र’ में उपर्युक्त विचार धारा की सत्यता प्रकट हुई है । राज वाल्मीकि की कहानी ‘इस समय में’ भी दलित समस्या की वास्तविकता पर विचार किया गया है। वैसे तो यह कहानी अपने आप में बहुत विषयों को एक साथ लेकर चलती है। जिसमें नव युवा पीढ़ि का देखने का अपना एक तर्जुबा अलग है। इन सारे विषयों के बावजूद जाति पर आधारित जो चर्चा या चित्रण कहानी के माध्यम से हुआ है वह वास्तविकता का दर्शन कराता है। हिंदू समाज में जाति का बटवारा काम के आधार पर हुआ था। परंतु आधुनिक काल में दलितों के कर्म बदल जाने पर भी उन्हे परंपरागत रूढ़िवादी विचारधारा के आधार पर उन्हे आज भी लज्जित किया जाता है। वास्तव में स्कूल के शिक्षकों की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है की विद्यार्थियों में जाति या उच्च –निच्च की भावना या विचार को स्थान न दे। परंतु कभी-कभी जाने- अनजाने में ही सही जिस बात को नहीं बताना चाहिए, उसी बात को शिक्षकों के द्वारा बताया जाता है। इसका बाल मन पर कितना गहरा असर होता है यह बताना बहुत कठिन होता है। यही संदेश ‘इस समय में’ कहानी देती है। 

दलितों पर होनेवाले अन्याय को दर्शानेवाली डा. पूरन सिंह की कहानी ‘अंर्तकलह’ भी एक है। प्रस्तुत कहानी में अप्रैल १४ के दिन डा. बाबासाहेब के जन्म दिवस के अवसर पर दलितों में जो उत्साह और उमंग भरी होती है वह किसी त्यौहार से कम नहीं है। परंतु यह उत्साह सवर्ण समाज को देखा नहीं जाता। इस में बाधा डालने का काम किया जाता है। प्रस्तुत कहानी में इसका सजिव वर्णन हुआ है।

“मेरे विचारानुसार दलितों का यही एक त्यौहार होना चाहिए। अन्य त्यौहारों के नाम पर पैसा और समय बर्बाद करने के बजाय दलितों के मसिहा डा. बाबासाहेब के जन्म दिवस के अलावा पवित्र त्यौहार कौन सा हो सकता है?”। 

आलोक कुमार सातपु्ते की कहानी ‘साहब की जात’ में परंपरागत विचार धारा वाले सवर्ण समाज का दर्शन होता है। गरीब हरिजन मन्नू चमार का बेटा सुखीराम डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। इसी खुसी में सारा मुहल्ला भी खुशी में झूमने लगता है। खुशी में घर-घर में चिराग की थालीयाँ सजाई गई थी । चारों ओर त्यौहार का – सा वातावरण था। चमार मन्नू घर के आंगन में लेटकर अपने गरीबी में बिते दिनों को याद कर रहा था। “उसके बाबूजी ने कितने कष्ट सहकर उसे पढ़ाया लिखाया। अब घर के सारे दलिद्दर दूर हो जायेंगे”।८ दूसरी तरफ ब्राह्मण पारा में इसी बात को लेकर मातमी माहौल बना हुआ था। विशेष कर ब्राम्हण पारा के गजेंद्र महाराज के घर पर। गजेंद्र महाराज उस गाँव के मुखिया थे। हरिजन बस्ति के आनंदी मौहोल को देखकर वह बात- बात पर बिगड रहे थे। सामाजिक बांधव्य के आधार पर जिस गाँव गजेंद्र में रहते थे उसी गाँव का पिछडे वर्ग का एक दलित युवा कलेक्टर बनना तो पूरे गाँव के लिए गर्व की बात थी। इस का गर्व सिर्फ हरिजन बस्ती को न होकर संपूर्ण गाँव को होना था। लेकिन यह संभव नहीं था। क्योंकि गाँव एक होने पर भी वहाँ रहने वाले जाति समुदाय अलग –अलग थे। ऐसे में जहाँ सवर्ण का वर्चस्व हो वहा पर दलित युवा का कलेक्टर बनना खुशी की जगह ईर्श्या और द्वेष की भावना का होना स्वाभाविक ही था। 

दलितों के विकास में बाधा उत्पन्न करने की मानसिकता सवर्ण समाज ने अपने पीढ़ि दर पीढ़ि को जैसे विरासत में सौंप दिया है। एक तरफ विद्या पाकर दलित युवा अपना विकास कर लेना चाहता है तो दुसरी तरफ उन्हे आगे न आने देने की भरपूर कोशीश सवर्ण युवा करता है। इसका जीवंत दस्तावेज है श्याम नारायण कुदंन की कहानी ‘छात्रावास’। अपने विश्वविद्यालयिन जीवन में उनके साथ घटीत नारकीय यातना का चित्रण उन्होने इस कहानी में प्रस्तुत किया है। दलित विद्यार्थियों का शोषण करने सवर्ण जाति के विद्यार्थी छात्रावास में किस प्रकार अपनी-अपनी लाबी बनाकर रहते हैं इसका विस्तृत चित्रण इस कहानी में हुआ है। 

जब कोई समाज किसी एक वर्ग का विरोध करता है तब विरोध होने वाले मनुष्य का आचरण दो तरह का हो सकता है। पहला अन्यायी शक्तियों का दृढ़तापूर्वक सामना करके उनके विरोध का दमन कर दे। और दूसरा वह अपनी अस्मिता तथा योग्यता को भूलकर अन्याय एवं दुराचारी के सामने घुटने टेक दे। इस में पहला आचरण विद्रोही है और दुसरा शक्ति और आत्मविश्वास के अभाव का सूचक । दलित समाज सदैव अपनी मान मर्यादा या प्रतिष्ठा और मानवीय अधिकारों से वंचित रहा है। बाकी कारण और भी कई होगें लेकिन इसका मूल कारण हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था ही है। इसी व्यवस्था के कारण दलित समाज आजीवन गुलामी व बदसलूकी को सहता आ रहा है। भारतीय हिन्दू समाज की बनाई जाति व्यवस्था जहाँ अधिक लचिली दिखाई देती है । वही वह लोहे की जंजीर से भी अधिक मजबूत साबित हुई है। 

इस सदी के प्रथम दशक में हिन्दी साहित्य के अंतर्गत बहुत सी कहानियाँ हैं जो दलित समाज के जीवन को दर्शाती है। सामान्यतः हर समाज और काल में कुछ सामाजिक विषमताएँ हमेशा से नजर आती है। इस में दलितों के सेवा भाव को धर्म सन्मान माना और उन्हे हमेशा से नीचे ही रहने की व्यवस्था उच्च समाज करता आया है। जहाँ भी दलितों ने उपर उठने की कोशीश की वहाँ उसे शक्ति और युक्ति दोनों के प्रयोग से दबाया गया। समाज के विकास के लिए सहानुभूति, श्रम और स्वतंत्रता इन्ह तीन्हो की आवश्यता है। परंतु कुछ एक अपवादों को छोडकर धर्म के नाम पर हिन्दू समाज ने एक बडे श्रम करने वाले वर्ग के साथ निर्दयता से व्यवहार करके अपनी कमजोरी का ही परिचय दिया है। 

हिन्दी कहानियों में दलित जीवन संबंधी जो विचार व्यक्त हुए है वह मनोरंजनात्मक न होकर उस समाज का लेखा-जोखा और भोगा हुआ यथार्थ है। 

संदर्भ

१.हरपाल सिंह: - ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में सामाजिक लोकतांत्रिक चेतना.

२. डा. पशुपति उपाध्याय:- समकालिन हिन्दी आलोचना दशा और दिशा. 

३. धर्मेंद्र कुमार:- मुखिया. 

४. मोहनदास नैमिशराय: दर्द 

५. –वही—

६. –वही—

७. रत्नकुमार सांभरिया: डंक 

८. आलोक कुमार सातपुते: साहब की जात. 

ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य में दलित प्रश्न


हिन्दी साहित्य में दलित धारा को आधार रूप प्रदान करने वाले लेखक और विमर्शक साथ ही दलित समाज का दुख और यातनाओं को बिना नाटकीयता का सहारा लिए अपनी भूमिका निभाने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि जी दलित साहित्य के मूर्द्धन्य हस्ताक्षर थे। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से दलित समाज को वाणी दी है। इनका सारा साहित्य वास्तविकता का दर्शन कराते हुए समाज की आँखे खोलने का काम करता है। इन्होंने साहित्य के माध्यम से दलित समाज का अपमान और दुखद भरी जिन्दगी जीने की मजबूरी के खिलाफ अपनी जंग जारी रखी। दलित समाज की वेदना ही इनके साहित्य की जन्मदात्री रहीं है। भारतीय समाज की जाति - व्यवस्था में दलित जाति से मुक्ति का प्रश्न इनके साहित्य के माध्यम से सामने आता है। साथ ही परंपरावादी समिक्षक दलित साहित्य के अस्तित्व को नकारने की कोशिश में लगे रहे उन्हे मुँह तोड़ जवाब भी देता है। उनके साहित्यिक यात्रा में कविता, कहानी, आत्मकथा, आलोचना, विचारोत्तेजक कृति और नाटक (दो चेहरे) आदी समिल्लित है।

मनुष्य को इन्सानियत की राह से भटकानेवाला कारण अगर कोई हो सकता है तो वह है अस्पृशता की विचारधारा। यह बात तो सांप्रदायिक द्वेष से भी भयानक और समाज के लिए अहितकर है। क्योंकि इस तरह की मानसिकतावाला व्यक्ति या वर्ग अपने ही समाज में फूट डालकर सामाजिक एकता में बाधा उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में उच-नीच की विचार धारा के चलते मानव- मानव के बीच जो दूरियाँ और खाई उत्पन्न हुई, इससे सबसे अधिक नुकसान अगर किसी का हुआ तो वह देश का है। भारतीय समाज में वर्ण –व्यवस्था के आधार पर जो समाज का बंटवारा हुआ, उसकी ही देन है जातिभेद जो असमानता, वर्चस्व और शोषण पर आधारित है। 

वाल्मीकि जी का साहित्य स्वानुभूति की चेतना हैं। इसीलिए वह सहानुभूति को जगह नहीं देती । इनका साहित्य स्वयं और समाज के सामने उपस्थित किया जाने वाला प्रश्न हैं - कि दलित व्यक्ति भी सभी मनुष्य तरह मनुष्य ही है और सभी की तरह उसे भी आगे बढ़ने व अवरसों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए वह क्यों नही है? 

वाल्मीकि जी की कविता के संदर्भ में कहा जाय तो इनकी कविता का स्थल अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की स्मृति है। यहाँ जीवन की स्मृतियाँ लौटकर आती है। कविता में जीवन की पीड़ा शब्दबद्ध होकर सामाजिक यथार्थ के आलोक में सामाजिक परिवर्तन की इच्छा दर्शाती है। जीवन संघर्ष के साथ – साथ मानसिक उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए चिंतन भी करती है। जो साहित्य जीवन यथार्थ से जुड़ा है इस में मन को गुदगुदानेवाली बाते न होना स्वाभाविक ही है। वर्ण व्यवस्था से पीड़ित समुदाय की वेदना ही इनकी कविता का स्वर है। यह अस्मिता की तलाश के साथ –साथ अस्तित्व के लिए जूझते सरोकारों को रेखांकित करती है। जैसे “जंगलो, पहाड़ो, नदियों और नालों में खोज रही है, गत और विगत बीच की मौन शिलाएँ”(सदियों का संताप काव्य संग्रह) जातिवादी परंपरा को पोसने वाले और जन्म के आधार पर दलित वर्ग का शोषण करने वाले पुरोहितों को कवि प्रश्न करता है की – ‘चूहड़े या डोम की आत्मा ब्रम्ह का अंश क्यों नही है , मैं नहीं जानता, शायद आप जानते हों ? समाज की सदा सेवा करते रहें किसी के रास्ते में कभी अडचन पैदा नहीं की फिर भी हम अछूत रहे। इस बात की शिकायत उनके काव्य में स्पष्ट दिखाई देती है। शोषण और अपमान के कारण अपनी कविता में एक जगह अछूत होने की इस पीड़ा को भी व्यक्त करते हुये वह प्रश्न करते है की – ‘ नहीं बोएँ काँटे, बाँटे सिर्फ शगुन प्यार के। फिर भी रहे अछूत’। यातना जनित विक्षोभ और यथार्थ को संभालती हुई हेयबोध से मुक्ति और अस्मिता के निर्माण के लिए वे अपना दुख दर्द लिखते है। 

भारतीय समाज में कई तरह के अर्न्तविरोध विद्यमान है। इनमें सबसे अधिक विरोध दलित और सवर्ण कहे जानेवाले समुदायों के बीच में फैला हुआ है। आर्श्चय की बात यह है की समाज की अनिवार्य सेवा से जुडे़ व्यक्ति और समुदायों को हिन्दू समाज ने घृणित और अछूत क्यों बना दिया? यह प्रश्न इनके संपूर्ण साहित्य में उपस्थित है। जाति व्यवस्था अति क्रुर व्यवस्था है। क्योंकि इसका प्रभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक बराबर बना रहता है। इनका साहित्य इसी नियमों के बंधन में घिरे हुए दलित की यातना का चित्र प्रस्तुत करता है। कहानियों के संदर्भ में कहा जाय तो दलित समाज की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कॄतिक क्रिया प्रणालीयों की सच्चाई को उजागर करते हुए दलित समुदाय की पीड़ा और आक्रोश का बेबाक चित्रण प्रस्तुत करते है। इनका पहला कहानी संग्रह ‘सलाम’ जिसमें में कुल चौदह कहानियाँ है । संग्रह की हर कहानी जातीय विशिष्टताओं का यथार्थ पेश कर चुकी है। साथ ही समाज की कड़वी सच्चाई लेकर प्रस्तुत हुई है। इन कहानियों के माध्यम से करोंड़ो दलित जीवन के ऐसे चित्र सामने आते हैं, जिन्हे परंपरागत सामाजिक ढ़ांचे में फिट नहीं किया जा सकता। ‘सलाम’ संग्रह की कहानियों पर शौराज सिंह ‘बेचैन’ ने कहा है “सलाम की कहानियों में दलित जीवन का एक ऐसा यथार्थ है जो परंपरागत साहित्यिक यथार्थ से जुदा है और उस भिन्नता का एहसास कराता है, जो पारंपारिक जीवनदृष्टि और इस नई चेतना के बीच मौजूद है”। इनका दुसरा कहानी संग्रह हैं ‘घुसपैठिये’ जीसमें कुल बारह कहानियाँ है। इन कहानियों का कथ्य उन अमानुषिक स्थितियों, घटनाओं और प्रसंगों से हैं जो नि:संदेह मानवता के नाम पर कलंक है। लेखक इन कहानियों के माध्यम से प्रश्न करता है कि आखिर क्यों हिन्दू समाज व्यवस्था के चक्र में दलितों को कुचल दिया गया? कहानियों की अर्त्नवस्तु लेखक के अनुभव जगत की त्रासदियों और दुखों से उपजी आत्मिक संवेदनाएँ है। यह कहानियाँ जीवन के उन तमाम प्रश्नों से जुड़ी है जो दलित जीवन के इर्द-गिर्द फैले हुये है। यह दलित समाज की यातनापूर्ण जिन्दगी का जीवंत दस्तावेज है। इनकी कहानियों में से एक कहानी है ‘छ्तरी’। यह कहानी बच्चे के मनोविज्ञान को उकेरती है। अभाव में पलते दलित परिवार को छतरी बहु मुल्यवान है। वह वर्षा में किताबों को भिगकर नष्ट होने से बचायेगी। इस कहानी में छतरी को प्रतीक के रूप में ले सकते हैं। इस छतरी को मास्टर ईश्वर चंद तोड देते है। यह तोडना अनायास नहीं है। क्योंकि जो भी दलितों को सुरक्षा देगा, छाया देगा, सपने बुनने में सहयोग देगा उसे सवर्ण समाज तोड देगा ही । यह सामाजिक व्यवस्था को पोसनेवाले व्यक्ति के अंदर छिपी वास्तविक विचार धारा को दर्शाती है। 

वाल्मीकि जी की इन कहानियों में एक प्रश्न छिपा है क्यों स्कूल- कालेज का पहला दिन हो, नौकरी की ज्वाईंनिंग हो, किराए के मकान की तलाश हो, या यात्रा के दौरान किसी से परिचय या कही पहली मुलाकात, हर जगह पर जाति को पूछा जाता है। इस दंश से आदमी कितना घायल होता है इसे तो वही भोक्ता ही जाने। जैसे मुक्तिबोध जी ने एक जगह पर कहा है कि “ लोहे का स्वाद लुहार और घोड़ा ही जाने जिसके मुँह में लगाम लगा होता है”। यह बात दलितों पर लादे हुए बंधनों पर पूरी तरह से खरी उतरती है। 

इनका साहित्य आनंद प्रदान करने वाला साहित्य नहीं है । न हीं इसमें आदेशात्मकता है । यह सामाजिक साहित्य, समाज के लिए, प्रस्तुत है, और इसकी प्रेरणा सबसे पहले दलित समाज के लिए है। जिसमें भविष्य चिंतन सम्मिलित है। आत्मकथा के संदर्भ में कहा जाय तो वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ की खास जगह है। यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति के अनेक बिंदुओं को सिर्फ छुति ही नहीं बल्कि दलित जीवन संबंधी प्रश्न उपस्थित करती है। दलित जीवन की जो पीड़ाएँ और ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्ति में स्थान नहीं पा सके इस आत्मकथा में दर्ज हुए है

संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह मनुष्य का ही एक लघु रूप होता है। परंतु हिन्दू धर्म में बनी जाति-धर्म की विचार धारा या मान्यताओं के अनुसार उसका रूप बदलने में देर नही लगती और बहूत कम समय में वह किसी जाति या धर्म का हो जाता है। इसी के साथ समाज में उच - नीच का स्थान भी तय हो जाता है। अपने देश में समाजिक समानता या असमानता का आधार हमेशा से जातिगत रहा है। सामाजिक संदर्भ में ‘जूठ़न’ का प्रथम परिवेश सामाजिक और दूसरा आर्थिक है । लेखक ने आत्मकथा में अपना मंतव्य देते हुए लिखा है - “अस्पृशता का ऐसा माहौल कि कुत्ते,बिल्ली, गाय, भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चुहड़े का स्पर्श हो जाय तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इन्सानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। इस्तेमाल करों दूर फेकों”। यहाँ पर लेखक इन्सानियत पर प्रश्न करते नजर आते है। इससे स्पष्ट होता है कि दलितोंध्दार की मुहिम मात्र घोषणा बनकर रह गई है। आत्मकथा में वर्णित जीवन अनुभव बहुत दारूण है । उन्ही के शब्दों में “फेंक दिया जाने वाला मांड हमारे लिए गाय के दूध से ज्यादा मूल्यवान था”। यहाँ स्पष्ट होता है की दलितों के लिए दूध एक सपना था। लेखक ने एक जगह पर प्रश्न किया है कि “महाभारत में व्यास का ध्यान द्रोण की गरीबी पर गया। उसने अपने पुत्र को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया और हमें चावल का मांड । फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया? किसी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा? यह व्यक्तिगत अनुभव की बात होने पर भी इस में एक सामाजिक दृष्टिकोण भरा हुआ है । आत्मकथा में पीड़ा और शोषण के वर्णन के साथ ही विरोध के स्वर भी तेज हुए है । एक ही देश और समाज में रहनेवाले सदैव अपने काम आनेवाले समाज के एक वर्ग को कर्म के अधार पर हीन बताकर लताड़ना, यह सिर्फ दलित समाज की अवन्नती का प्रश्न नहीं हैं बल्कि पूरे मानव समाज और राष्ट्र से जुड़ा हुआ प्रश्न है। इनकी एक और रचना है ‘सफाई’ देवता इस कृति में समाज के सबसे उपेक्षित तबके ‘भंगी’ की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ मौजूद वास्तविक स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया है। वह इस कृति के माध्यम से प्रश्न करते है की- कितने आश्चर्य की बात है कि परिसर को स्वच्छ और साफ रखनेवाले मनुष्य को उसी समाज में जिसे वह रहने लायक बनाता है उसे पशुओं से भी नीचे गिना जाता है। समाज के लिए जो सबसे ज्यादा उपयोगी है वही निकृष्ट और त्याज्य क्यों है? इस में लेखक परंपरागत मानसिकता को बदलने की बात करते है । साथ ही इस कृति में कर्मचारियों की समस्याओं पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस रचना का उद्देश सफाई कर्मचारीयों के ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है। साथ ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आकलन और उनके सामने खड़ी समस्याओं का विवेचन भी।

वाल्मीकि जी की रचनओं में एक और रचना है। ‘दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’। इसमें लेखक ने परंपरागत सौंदर्य शास्त्र की व्याख्या को पूरी तरह से खारीज कर दिया है। जैसे प्रेमचंद ने कहा था “ हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी और हमें निश्चय ही विलासिता के मीनार से उतरकर बच्चोवाली कालीरूपवती का चित्र खींचना होगा जो बच्चे को खेत की मेड पर सुलाकर पसीना बहा रही है”। इसमें दलित साहित्य की शोच और दृष्टि व्याख्यायित हो चुकी है। इस में लेखक ने साबीत किया है कि यह साहित्य कला के लिए नहीं बल्कि जीवन और जीवन जीने की जिजिविषा का साहित्य है। इसके अंदर छिपी प्रतिबध्दता ही इसका सौंदर्य विधान है। 

इनके संपूर्ण साहित्य में वैचारिकता के स्थान पर एक सामाजिक दृष्टिकोन और समता मूलक समाज निर्माण के साथ मानविय मूल्यों को नष्ट होने से बचाने का प्रयास विद्यमान है।