निसर्ग ने मनुष्य
में तीन प्रकार की शक्तियाँ भर दी है। शारीरिक, मानसिक, व आत्मिक । इन शक्तियों का
संबंध मनुष्य के तन, मन और आत्मा से है । और उसका विकास ही संस्कृति का उद्देश्य है
। अपने देश की एकात्मकता का आधार भी संस्कृति है। संस्कृति एक ऐसी जीवन पद्धति है जो
मनुष्य –मात्र में ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र में भी आत्मीयता का अनुवभ कराती है।
महाकवि तुलसीदास जी ने एक जगह पर कहा है, श्रीराम प्रभु को वन में छोड़कर जब उसका रथ
अयोध्या को लौटने लगा, तो रथ के अश्व भी बार- बार पीछे देखते चलते थे। यही निश्छल आत्मीयता
ही अपनी संस्कृति की धरोहर है। इससे स्पष्ट होता है कि संस्कृति राष्ट्र या समाज का
जीवन तत्व होती है। संस्कृति के आधार पर ही समाज सही रूप में जीवित रहता है।और संस्कृति
का कमजोर होना समाज की कमजोरी है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संस्कृति मनुष्य
को मानवता की ओर प्रेरित करने वाले आदर्शो, आचारों, विचारों, और कार्य अनुष्ठानों की
समविष्ठ का नाम है। संस्कृति की इस विशालता में सामान्य रूप से समाज में रहने वाले
मनुष्यों के सभी प्रकार से सामाजिक, साहित्यिक, राजनितिक, आर्थिक, नैतिक और आध्यात्मिक उदात्त विचारों
और कार्य कलापों का सन्निवेश संस्कृति के अंतर्गत किया जाता है।
हिन्दी साहित्य
के अंतर्गत अनेक विधाओं में हम भारतीय संस्कृति को देख सकते है। क्योंकि साहित्य ही
सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाला सशक्त वैचारिक उपकरण है। परंतु सच्चाई यह है कि
इस रूप में वह अपनी उपयोगिता तभी सिद्ध कर सकती हैं, जब उनका अपने युग और सामाजिक जीवन
से गहरा संबंध हो।
आधुनिक कविता
में सामाजिक यथार्थ कई रूपों में प्रकट होता हुआ दिखाई देता है। इस में व्यंग्य रूप
एक है। वैसे देखा जाय तो व्यंग्य आधुनिकता का एक अभिन्न हिस्सा है। क्योंकि एक तरफ
आधुनिक बोध की तहत शहरीकरण यंत्रीकरण, अस्तित्व संकट आदि के साथ मूल्यहीनता और चरित्र हीनता आदि
को भी व्यंग्य शैली में कवियों ने अपनी काव्य कृति में रेखांकित किया है। आधुनिक व्यंग्य
में औद्योगिकरण एवं शिक्षा के विस्तार के फलस्वरूप भारतीयों पर पाश्यात्त्य संस्कृति
का प्रभाव पडा। उसके प्रभाव से भारतीय समाज को मुक्त कराने की चिंता भी आधुनिक
कवियों की रही है। साथ –साथ भारतीय समाज को अंधविश्वास, धार्मिक रूढ़याँ और पाखंड से
मुक्त कराना भी।
राष्ट्रीय सांस्कृतिक
कवियों को जहाँ भी धर्म के आड़ में अंधविश्वास, और विवेक हीनता दिखाई दी वहाँ व्यक्ति
की धार्मिक प्रवृत्ति का मजाक न उडाते हुए, धार्मिक आचरण से सामाजिक जीवन में जो गडबडी
पैदा की जिससे सामाजिक प्रगति में बाधा दिखाई पड़ी वहाँ पर उस आचरण का कवि ने व्यग्य
करना नहीं छोडा है।
सोहनलाल द्विवेदी जी ने जब देखा धर्म के
नाम पर मनुष्य मानवता को भूल रहा है। और सांप्रादायिक मतभेदों को दंगो का रूप लेते
हुए देखा तो बोले….
“मस्जित से मंदिर लड़ते है
गिरिजा से लड़ते विहार मठ
धर्म अनर्थ कर रहा कितना
करते हैं अधर्म पामर शठ’’
इस कविता में
कवि ने स्पष्ट रुप से धर्म की गलत व्याख्या करने वालों पर प्रहार किया है। भारतीय नियतिवाद हमें यह सिखाता आया है की मनुष्य
इस जन्म में जो सुख दुख भोग रहा है वह पूर्व जन्म का फल है। समाज में जो गरीब, शोषित
और उत्पीड़ित है वह इसलिए ऐसे है कि उन्होने पिछले जन्मों में कुकर्म किया था। परंतु इस का कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है। इस तरह बताना
तो सरासर स्वार्थी लोगों की चाल है। जिस से वह शोषित दलित वर्ग को नियति का पाठ पढाकर
न्यायपूर्ण अधिकार की माँग करने से सदियों
तक रोके रखे। इस षड़्यंत्र पर राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के कवियों ने अपनी कविता के
माध्यम से प्रहार किया है। जैसे दिनकर जी प्रारब्ध का मजाक उडाते हुए प्रश्न करते है
कि इस जन्म में जो सारे सुखों का भोग ले रहा है क्या उसका धन और भूमि वही है जो उसने पिछले जन्म में जमा करके
रखा था। उनकी काव्य की पंक्तियाँ इस प्रकार है-
मरा जब पूर्व में वह धन संचित करके
दिया हुआ था
न्यास समर्जित किसके घर में धर के
जन्मा है वह जहाँ आज जिस पर उसका शासन
है
क्या है यह घर वहीं? और यह उसी न्यास
का धन है?
कुछ एक अपवादों
को छोडकर वास्तविक शिक्षा का प्रचार –प्रसार के अभाव में ग्रामीण जनता में अंधविश्वासों
का अधिक होना माना जाता है। परंतु वर्तमान में हम अनुभव कर चुके है कि शहर की बराबरी
से ग्राम भी अपना विकास कर ले रहा है। लेकिन धर्म भीरुता और अंधविश्वास की आज वहाँ
कमी नहीं है। और यह विचारधारा ग्रामीण समाज के पुर्ननिर्माण में बाधक है। आधुनिक कवियों
ने इस बात को भी कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जी लिखते
है.....
“इन पर छाए पीर, कब्र सब
भूत-प्रेत पीपल और पत्थर
एक छींक से ही होते है
ये मानव सभीत अति सत्वर”
हमने महसूस
किया है कि भारतीय समाज कुछ ऐसी कुप्रथाओं का शिकार है जिनका समरूप संसार के सभ्य समाज
में नहीं मिलता। उनमें एक है जाति प्रथा। जो भारतीय समाज की अत्यंत प्राचीन व्यवस्था
है। भले इस प्रथा की शुरूआत वर्ण व्यवस्था के नाम से प्रचलित श्रम विभाजन की दृष्टि
से हुई होगी। और उन दिनों में इसकी आवश्यकता भी रही होगी, लेकिन आज के दिनों राष्ट्र
की प्रगति तथा कल्याणकारी समाज व्याख्या के निर्माण में जाति प्रथा सबसे बड़ी बाधा बन
गई है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने ‘रश्मिरथी’ काव्य में महाभारत के कर्ण संबंधी विषय को रेखांकित करके
वर्ण व्यवस्था के अनौचित्य और खोखलेपन का चित्रण किया है। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में
कर्ण अपनी लगन और साधना से निर्मित अद्भुत व्यक्तित्व के साथ उस रंगभूमि में उतरता
है जहाँ आचार्य द्रोण के शिष्य कौरव और पांडव
का शस्त्रास्त्र कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। अर्जुन द्वारा प्रदर्शित युद्ध कलाओं
को देखने के बाद वह अर्जुन को ललकारता है। परंतु कृपाचार्य बीच में उपस्थित होकर यह
घोषना करते है कि अर्जुन क्षत्रिय राजपुत्र है। इसलिए इस से लड़ना हो तो अपने जाति का
परिचय दे। योग्यता के बीच जब जाति आती है तब कर्ण तडप उठता है और कृपाचार्य को उत्तर
देता है-
“जाति- जाति रटते जिनकी पूंजी केवल पाषंड
मैं क्या जानू जाति? जाति हैं ये मेरे
भुजदंड।
ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं, जगत में जाति पूछने
वाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ
के कौन?
साहस हो तो कहो ग्लानि से रह जाओ मत
मौन।
दिनकर जी ने
कर्ण के माध्यम से कुलीनता के दंभ को उसकी जड़ पर प्रहार करके धराशाही करने का प्रयत्न
किया है। क्योंकि महाभारत की कथा के अनुसार पांडव उनके पिता के पुत्र थे नहीं। पांडु
और धृतराष्ट्र भी अपने पिता की संथान न थे। वह तो व्यास का कृपार्शिवाद का फल था। बात
स्पष्ट है कि दूसरों को नीच या शुद्र कहकर अपमानित करने से पूर्व अपनी कुलीनता को समझे।
दिनकर जी एक और जगह आधुनिक भारत की सांस्कृतिक
विडंबना को दर्शाते है। और कहते है कि यहाँ आधुनिकता का उपयोग ऊपरी तौर पर ही हुआ ।
क्योंकि जीवन के प्रति जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपना ने तथा पूरानी मान्यता और सामंती
मूल्यों को त्यागने को आज हम पूर्णत: तैय्यार नही है। आधुनिकता को फैशन का पर्याय मानने
वालो पर दिनकर का यह व्यंग्य द्रष्टव्य है--
“आधुनिक की बही पर नाम अपना भी चढ़ा दो
नायलोन का कोट हम सिलवा चुके हैं
और जड़ से नोचकर बेला चमेली के द्रुमों
कैक्टसों से भर चुके हैं बाग हम अपना”
इस प्रकार देश
में आधुनिक कहने वाली यह बात हास्यास्पद और बनावटी है।
हिन्दी के आधुनिक कवियों में जगन्नाथ प्रसाद
‘मिलिंद’ भी एक है। जिन्होने अपनी कविता में सामाजिक वैषम्य को चित्रित करने का प्रयास
किया है। देश में अपने आप को उच्च वर्ण के समझने वाले लोगों को केंद्र में रखकर वह
कहते है –
“स्वर्ण पालनों में जब तेरी रमणी से शीशु
तृप्त न होता
रोटी पर पय विक्रय करने आ निर्धन माँ का मन रोता
करूणा की जब प्यास जागती, क्रूर मनोरंजन
के ऊर में
अश्रु अभाव-ग्रस्त नारी के बिकते तेरे अभिनय
पुर में”
यह पंक्तियाँ
सामाजिक व्यंग्य को प्रस्तुत करती है। जिस में मानव प्रेम और सामाजिक चिंता उनके काव्य
–व्यंग्य को महत्वपूर्ण बना देती है।
समाज में हम देखते है कि कुछ लोग दूसरों
की विवशता का लाभ उठाकर अपने स्वार्थ और वासनाओं की पूर्ति कर लेते है। और ऐसा करने
को उन्हे किसी बात की लजा भी नहीं आती है।
इस प्रकार के अन्याय और शोषण पर आधारित व्यवस्था मनुष्य से उसका मनुष्यत्व ही छिन लेती
है। ऐसी स्थिति पर प्रहार करते हुए हरिकृष्ण प्रेमी लिखते है---
“धन के मद में मत्त जगत क्या कहता है, सुन
तो लो रानी
आज हाट में बेच तुम्हें भी, बेचूं इन आंखो
का पानी
हाय! भूख से तड़प-तड़प कर रोटी माँगी की नादानी,
उसको बदले में दुनिया ने इज्जत लेने की ठानी”
धार्मिक विड़ंबना
रूढ़िवाद अंधविश्चास और जाति वाद जैसे विषय पर अनेको ने लिखा है। इनमें भगवतीचरण वर्मा
और ‘नीरज’ भी प्रमुख है। ‘हिन्दू’ कविता में भगवतीचरण वर्मा ने हिन्दू धर्म की आंतरिक
विसंगतियों को स्पष्ट रूप से खोला है। उन्होने
जो कहा वह बिल्कुल सही प्रतीत होता है। क्योंकि उसे हम वर्तमान काल में भी अपने चारों
ओर देख रहे है। दया को हिन्दू धर्म का मूल बनाकर पशुओं तक को अपनी करूणा से भर देते
है। परंतु विड़ंबना इस बात कि है की अपने जैसे ही रक्त, हाड, मांस से बने दलित, विधवाओं
और दलित नारी के प्रति इनके मन में दया-ममता का कोई भाव नही है। मनुष्य को पशु से भी
हीनतर बना देना सामाजिक और नैतिक विद्रूपता नहीं तो और क्या है? कवि लिखते है…
“तुम ममत्व की मूर्ति, ब्रह्म के सदा उपासक
निज इच्छा की पूर्ति, वासना के तुम पालक
भेद भाव के दास धर्म के अविकल साधक
विधवाओं के काल और गायों के पालक
पशुओं पर दया, मनुष्यों पर है अत्त्याचार
व्यंग्यमात्र है अरे पतित, यह सब तेरा अत्त्याचार”
सांस्कृतिक
विचार धारा में भक्ति के समान दया को भी परम पवित्र आचरण माना गया है। इस बात में लगभग
विश्व के सभी धर्म, संप्रदाय एकमत है। ईश्वर की सत्ता को स्वीकारना और भक्ति में डूबना
पवित्र धार्मिकता की पहचान है। परंतु धर्म के ठेकेदारों ने अपने अनुयाईयों को इतना
संकीर्णमना बना दिया है कि वह अपने स्वार्थ के लिए भगवान पर प्रेम दिखायेगा लेकिन अपने
साथी इंसान को कभी प्यार की भीक नहीं देगा। कवि ‘नीरज’ जी इस अमानुषिक संबंधी अपने
विचारों को इस प्रकार व्यक्त करते है।
“क्या करेगा प्यार वह भगवान को
क्या करेगा प्यार वह ईमान को
जन्म लेकर गोद में इंसान की
प्यार कर पाया न जो इन्सान को”
अपने देश की
सामाजिक संरचना अत्यंत जटिल है। क्योंकि देश अनेक जाति, उप-जाति, भाषा आदि में बंटा
हुआ है । एक ओर धर्म ने भारतीय जीवन को बिखेरने से बचाया है, तो दूसरी ओर आड्म्बरो और रूढ़ आचरणों की
शरण में चला गया । इन्ही आचरणों ने सामाजिक विकास की गति में बाधा उत्पन्न भी की है। महाकवि निराला ने अपनी
‘दान’ कविता में एक ऐसे विप्र पर व्यंग्य किया
है जो भूखे भिखारी को तड़पता छोड़कर बंदरो को
मालपुए खिलाता है। निराला यहाँ उस बात की ओर संकेत कर रहे है कि मनुष्य का आचरण पशुओं
से भी गयाबीता दिखाई देता है। वह लिखते है…
“झोली
से पुए निकाल लिए
बढ़ते कपियों के हाथ दिए,
देखा भी नहीं उधर फिरकर
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर।
वर्तमान समय
में सामाजिक संस्कृति की मूल्यनिष्ठा प्रेम, करूणा, सहयोग, परस्परावलंबन और त्याग भावना
के स्थान पर स्वार्थ, द्वेष और घृणा की प्रबलता होती जा रही है। संस्कृति के इस विघटन
में अर्थ केंद्रित यांत्रिक जीवन प्रणाली ही
मुख्य रूप से कारणीभूत है। इस प्रणाली में स्वार्थ परक आत्म केंद्रियता के कारण व्यक्ति
–व्यक्ति, समुदाय –समुदाय और वर्ग-वर्ग के बीच में घृणा का भाव उत्पन्न हो रहा है।
आधुनिक कवियों ने इस निरंतर बढ़ती हुई घृणा वृत्ति को अनेक संदर्भ देकर अपनी कविता का
विषय बनाया है। हमें यह देखने को मिलता है कि जिस प्रकार व्यक्तियों, समुदायों का समाज
में बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार सामाजिक संबंध बिगडने से सांस्कृतिक
पतन को देखा जा सकता है।
सांस्कृतिक पतन की गतिविधियों को कविता में
दिखाने वाले कवियों में मुक्तिबोध जी अपना विशेष स्थान रखते है। सामाजिक प्रगति को बाधित करने वाले तत्वों को तथा मानवता का मूल्य
घटानेवाली बातों को मुक्तिबोध जी खोलकर समाज के सामने रख चुके है। मुक्तिबोध जी का
व्यंग्य भी सार्थक और सजीव होता है। इसीलिए उनका व्यंग्य सही जगह गहरी चोट करता है।
उन्होने हर विषय पर व्यंग्य में लिखा है। आधुनिकता तथा आधुनिकता के नाम पर होने वाले
अत्त्याचार को भी उन्होने अपने व्यंग्य कविता का विषय बनाया है। ‘चाँद का मुह टेढ़ा है’ में नगरीय जीवन की कुरूपता,
विकृति और मूल्यहीनता पर सशक्त व्यंग्य है। कविता में बारी – बारी से नगरीय जीवन के विभिन्न पक्षों को चुना है।
नगरीय जीवन की संस्कृति को पतनशील पूंजीवादी संस्कृति का ही रूप मानते हुए वह स्पष्ट
लिखते है।
किग्सवे में मशहूर
रात की है जिन्दगी
सड़कों की श्रीमान
भारतीय फिरंगी दूकान
- - - - - - - - - -
- - - - - - - - - -
सफ़ेद
अंडवीयर सी, आधुनिक प्रतिकों
में,
फैली थी, चांदनी…
इस
प्रकार आधुनिक जीवन शैली पर उनका प्रहार प्रतीत है।
निष्कर्ष रूप में कहा जाय तो आधुनिक कालीन कवि परिर्वतन की
तीव्र आकांक्षा से प्रेरित होने के कारण अपने काव्य में सामाजिक परिवेश की विसंगतियों
पर सीधा प्रहार करते दिखाई देते है । इस धारा के कवियों को समाज में जहाँ कही भी आधुनिक
असंगत लगा वहाँ इन्होने व्यंग्य जड़ दिया है। फिर चाहे ग्रामीण और नगरीय जीवन हो, या
परंपरा । आत्मा के भीतर तक पहुँच कर जागृति उत्पन्न करनेवाला प्रयास व्यंग्य द्वारा
किया है।
संदर्भ:
१. शिवदत्त ज्ञानी- भारतीय संस्कृति
२. डॉ. मामा आठले- इतिहास और संस्कृति
३. डॉ. जितराम पाठक- आधुनिक हिन्दी काव्य में
राष्ट्रीय चेतना
४.
दिनकर- कुरूक्षेत्र
५.
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’- हम विषपायी जनम
के
६.
डॉ. रमाशंकर मिश्र- हिन्दी कविता: प्रयोगशील
‘आलोचना’
७.
हरिकृष्ण प्रेमी- अग्निगान
८.
गोपाल दास ‘निरज’- प्राणगीत
९.
निराला- दान (अनामिका)
१०. मुक्तिबोध- चाँद का मुंह टेढा है।
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