Wednesday, 6 August 2014

आधुनिक काव्य में सांस्कृतिक व्यंग्य




निसर्ग ने मनुष्य में तीन प्रकार की शक्तियाँ भर दी है। शारीरिक, मानसिक, व आत्मिक । इन शक्तियों का संबंध मनुष्य के तन, मन और आत्मा से है । और उसका विकास ही संस्कृति का उद्देश्य है । अपने देश की एकात्मकता का आधार भी संस्कृति है। संस्कृति एक ऐसी जीवन पद्धति है जो मनुष्य –मात्र में ही नहीं बल्कि प्राणी मात्र में भी आत्मीयता का अनुवभ कराती है। महाकवि तुलसीदास जी ने एक जगह पर कहा है, श्रीराम प्रभु को वन में छोड़कर जब उसका रथ अयोध्या को लौटने लगा, तो रथ के अश्व भी बार- बार पीछे देखते चलते थे। यही निश्छल आत्मीयता ही अपनी संस्कृति की धरोहर है। इससे स्पष्ट होता है कि संस्कृति राष्ट्र या समाज का जीवन तत्व होती है। संस्कृति के आधार पर ही समाज सही रूप में जीवित रहता है।और संस्कृति का कमजोर होना समाज की कमजोरी है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संस्कृति मनुष्य को मानवता की ओर प्रेरित करने वाले आदर्शो, आचारों, विचारों, और कार्य अनुष्ठानों की समविष्ठ का नाम है। संस्कृति की इस विशालता में सामान्य रूप से समाज में रहने वाले मनुष्यों के सभी प्रकार से सामाजिक, साहित्यिक,  राजनितिक, आर्थिक, नैतिक और आध्यात्मिक उदात्त विचारों और कार्य कलापों का सन्निवेश संस्कृति के अंतर्गत किया जाता है।
हिन्दी साहित्य के अंतर्गत अनेक विधाओं में हम भारतीय संस्कृति को देख सकते है। क्योंकि साहित्य ही सामाजिक जीवन को प्रभावित करने वाला सशक्त वैचारिक उपकरण है। परंतु सच्चाई यह है कि इस रूप में वह अपनी उपयोगिता तभी सिद्ध कर सकती हैं, जब उनका अपने युग और सामाजिक जीवन से गहरा संबंध हो।
आधुनिक कविता में सामाजिक यथार्थ कई रूपों में प्रकट होता हुआ दिखाई देता है। इस में व्यंग्य रूप एक है। वैसे देखा जाय तो व्यंग्य आधुनिकता का एक अभिन्न हिस्सा है। क्योंकि एक तरफ आधुनिक बोध की तहत शहरीकरण यंत्रीकरण, अस्तित्व  संकट आदि के साथ मूल्यहीनता और चरित्र हीनता आदि को भी व्यंग्य शैली में कवियों ने अपनी काव्य कृति में रेखांकित किया है। आधुनिक व्यंग्य में औद्योगिकरण एवं शिक्षा के विस्तार के फलस्वरूप भारतीयों पर पाश्यात्त्य संस्कृति का प्रभाव पडा। उसके प्रभाव से भारतीय समाज को मुक्त कराने की चिंता                        भी आधुनिक कवियों की रही है। साथ –साथ भारतीय समाज को अंधविश्वास, धार्मिक रूढ़याँ और पाखंड से मुक्त कराना भी।
राष्ट्रीय सांस्कृतिक कवियों को जहाँ भी धर्म के आड़ में अंधविश्वास, और विवेक हीनता दिखाई दी वहाँ व्यक्ति की धार्मिक प्रवृत्ति का मजाक न उडाते हुए, धार्मिक आचरण से सामाजिक जीवन में जो गडबडी पैदा की जिससे सामाजिक प्रगति में बाधा दिखाई पड़ी वहाँ पर उस आचरण का कवि ने व्यग्य करना नहीं छोडा है।
          सोहनलाल द्विवेदी जी ने जब देखा धर्म के नाम पर मनुष्य मानवता को भूल रहा है। और सांप्रादायिक मतभेदों को दंगो का रूप लेते हुए देखा तो बोले….
          “मस्जित से मंदिर लड़ते है
          गिरिजा से लड़ते विहार मठ
          धर्म अनर्थ कर रहा कितना
करते हैं अधर्म पामर शठ’’
इस कविता में कवि ने स्पष्ट रुप से धर्म की गलत व्याख्या करने वालों पर प्रहार किया है।  भारतीय नियतिवाद हमें यह सिखाता आया है की मनुष्य इस जन्म में जो सुख दुख भोग रहा है वह पूर्व जन्म का फल है। समाज में जो गरीब, शोषित और उत्पीड़ित है वह इसलिए ऐसे है कि उन्होने पिछले जन्मों में कुकर्म किया था। परंतु   इस का कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है। इस तरह बताना तो सरासर स्वार्थी लोगों की चाल है। जिस से वह शोषित दलित वर्ग को नियति का पाठ पढाकर न्यायपूर्ण अधिकार की माँग  करने से सदियों तक रोके रखे। इस षड़्यंत्र पर राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के कवियों ने अपनी कविता के माध्यम से प्रहार किया है। जैसे दिनकर जी प्रारब्ध का मजाक उडाते हुए प्रश्न करते है कि इस जन्म में जो सारे सुखों का भोग ले रहा है क्या उसका धन  और भूमि वही है जो उसने पिछले जन्म में जमा करके रखा था। उनकी काव्य की पंक्तियाँ इस प्रकार है-             
मरा जब पूर्व में वह धन संचित करके
दिया हुआ था न्यास समर्जित किसके घर में धर के
जन्मा है वह जहाँ आज जिस पर उसका शासन है
क्या है यह घर वहीं? और यह उसी न्यास का धन है?
कुछ एक अपवादों को छोडकर वास्तविक शिक्षा का प्रचार –प्रसार के अभाव में ग्रामीण जनता में अंधविश्वासों का अधिक होना माना जाता है। परंतु वर्तमान में हम अनुभव कर चुके है कि शहर की बराबरी से ग्राम भी अपना विकास कर ले रहा है। लेकिन धर्म भीरुता और अंधविश्वास की आज वहाँ कमी नहीं है। और यह विचारधारा ग्रामीण समाज के पुर्ननिर्माण में बाधक है। आधुनिक कवियों ने इस बात को भी कविता के माध्यम से व्यक्त किया है। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जी लिखते है.....
          “इन पर छाए पीर, कब्र सब
          भूत-प्रेत पीपल और पत्थर
          एक छींक से ही होते है
          ये मानव सभीत अति सत्वर”
हमने महसूस किया है कि भारतीय समाज कुछ ऐसी कुप्रथाओं का शिकार है जिनका समरूप संसार के सभ्य समाज में नहीं मिलता। उनमें एक है जाति प्रथा। जो भारतीय समाज की अत्यंत प्राचीन व्यवस्था है। भले इस प्रथा की शुरूआत वर्ण व्यवस्था के नाम से प्रचलित श्रम विभाजन की दृष्टि से हुई होगी। और उन दिनों में इसकी आवश्यकता भी रही होगी, लेकिन आज के दिनों राष्ट्र की प्रगति तथा कल्याणकारी समाज व्याख्या के निर्माण में जाति प्रथा सबसे बड़ी बाधा बन गई है।
          रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने ‘रश्मिरथी’ काव्य  में महाभारत के कर्ण संबंधी विषय को रेखांकित करके वर्ण व्यवस्था के अनौचित्य और खोखलेपन का चित्रण किया है। रश्मिरथी के प्रथम सर्ग में कर्ण अपनी लगन और साधना से निर्मित अद्भुत व्यक्तित्व के साथ उस रंगभूमि में उतरता है जहाँ  आचार्य द्रोण के शिष्य कौरव और पांडव का शस्त्रास्त्र कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। अर्जुन द्वारा प्रदर्शित युद्ध कलाओं को देखने के बाद वह अर्जुन को ललकारता है। परंतु कृपाचार्य बीच में उपस्थित होकर यह घोषना करते है कि अर्जुन क्षत्रिय राजपुत्र है। इसलिए इस से लड़ना हो तो अपने जाति का परिचय दे। योग्यता के बीच जब जाति आती है तब कर्ण तडप उठता है और कृपाचार्य को उत्तर देता है-
“जाति- जाति रटते जिनकी पूंजी केवल पाषंड
मैं क्या जानू जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।
ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं, जगत में जाति पूछने वाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो ग्लानि से रह जाओ मत मौन।
दिनकर जी ने कर्ण के माध्यम से कुलीनता के दंभ को उसकी जड़ पर प्रहार करके धराशाही करने का प्रयत्न किया है। क्योंकि महाभारत की कथा के अनुसार पांडव उनके पिता के पुत्र थे नहीं। पांडु और धृतराष्ट्र भी अपने पिता की संथान न थे। वह तो व्यास का कृपार्शिवाद का फल था। बात स्पष्ट है कि दूसरों को नीच या शुद्र कहकर अपमानित करने से पूर्व अपनी कुलीनता को समझे।
          दिनकर जी एक और जगह आधुनिक भारत की सांस्कृतिक विडंबना को दर्शाते है। और कहते है कि यहाँ आधुनिकता का उपयोग ऊपरी तौर पर ही हुआ । क्योंकि जीवन के प्रति जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपना ने तथा पूरानी मान्यता और सामंती मूल्यों को त्यागने को आज हम पूर्णत: तैय्यार नही है। आधुनिकता को फैशन का पर्याय मानने वालो पर दिनकर का यह व्यंग्य द्रष्टव्य है--
          “आधुनिक की बही पर नाम अपना भी चढ़ा दो
          नायलोन का कोट हम सिलवा चुके हैं
और जड़ से नोचकर बेला चमेली के द्रुमों
कैक्टसों से भर चुके हैं बाग हम अपना”
इस प्रकार देश में आधुनिक कहने वाली यह बात हास्यास्पद और बनावटी है।
          हिन्दी के आधुनिक कवियों में जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिंद’ भी एक है। जिन्होने अपनी कविता में सामाजिक वैषम्य को चित्रित करने का प्रयास किया है। देश में अपने आप को उच्च वर्ण के समझने वाले लोगों को केंद्र में रखकर वह कहते है –
          “स्वर्ण पालनों में जब तेरी रमणी से शीशु तृप्त न होता
          रोटी पर पय विक्रय करने  आ निर्धन माँ का मन रोता
          करूणा की जब प्यास जागती, क्रूर मनोरंजन के ऊर में
          अश्रु अभाव-ग्रस्त नारी के बिकते तेरे अभिनय पुर में”
यह पंक्तियाँ सामाजिक व्यंग्य को प्रस्तुत करती है। जिस में मानव प्रेम और सामाजिक चिंता उनके काव्य –व्यंग्य को महत्वपूर्ण बना देती है।
          समाज में हम देखते है कि कुछ लोग दूसरों की विवशता का लाभ उठाकर अपने स्वार्थ और वासनाओं की पूर्ति कर लेते है। और ऐसा करने को उन्हे किसी बात  की लजा भी नहीं आती है। इस प्रकार के अन्याय और शोषण पर आधारित व्यवस्था मनुष्य से उसका मनुष्यत्व ही छिन लेती है। ऐसी स्थिति पर प्रहार करते हुए हरिकृष्ण प्रेमी लिखते है---
          “धन के मद में मत्त जगत क्या कहता है, सुन तो लो रानी
          आज हाट में बेच तुम्हें भी, बेचूं इन आंखो का पानी
          हाय! भूख से तड़प-तड़प कर रोटी माँगी की नादानी,
          उसको बदले में दुनिया ने इज्जत लेने की ठानी”
धार्मिक विड़ंबना रूढ़िवाद अंधविश्चास और जाति वाद जैसे विषय पर अनेको ने लिखा है। इनमें भगवतीचरण वर्मा और ‘नीरज’ भी प्रमुख है। ‘हिन्दू’ कविता में भगवतीचरण वर्मा ने हिन्दू धर्म की आंतरिक विसंगतियों को  स्पष्ट रूप से खोला है। उन्होने जो कहा वह बिल्कुल सही प्रतीत होता है। क्योंकि उसे हम वर्तमान काल में भी अपने चारों ओर देख रहे है। दया को हिन्दू धर्म का मूल बनाकर पशुओं तक को अपनी करूणा से भर देते है। परंतु विड़ंबना इस बात कि है की अपने जैसे ही रक्त, हाड, मांस से बने दलित, विधवाओं और दलित नारी के प्रति इनके मन में दया-ममता का कोई भाव नही है। मनुष्य को पशु से भी हीनतर बना देना सामाजिक और नैतिक विद्रूपता नहीं तो और क्या है? कवि लिखते है…
          “तुम ममत्व की मूर्ति, ब्रह्म के सदा उपासक
          निज इच्छा की पूर्ति, वासना के तुम पालक
          भेद भाव के दास धर्म के अविकल साधक
          विधवाओं के काल और गायों के पालक
          पशुओं पर दया, मनुष्यों पर है अत्त्याचार
          व्यंग्यमात्र है अरे पतित, यह सब तेरा अत्त्याचार”
सांस्कृतिक विचार धारा में भक्ति के समान दया को भी परम पवित्र आचरण माना गया है। इस बात में लगभग विश्व के सभी धर्म, संप्रदाय एकमत है। ईश्वर की सत्ता को स्वीकारना और भक्ति में डूबना पवित्र धार्मिकता की पहचान है। परंतु धर्म के ठेकेदारों ने अपने अनुयाईयों को इतना संकीर्णमना बना दिया है कि वह अपने स्वार्थ के लिए भगवान पर प्रेम दिखायेगा लेकिन अपने साथी इंसान को कभी प्यार की भीक नहीं देगा। कवि ‘नीरज’ जी इस अमानुषिक संबंधी अपने विचारों को इस प्रकार व्यक्त करते है।        
 “क्या करेगा प्यार वह भगवान को
                   क्या करेगा प्यार वह ईमान को
                   जन्म लेकर गोद में इंसान की
                   प्यार कर पाया न जो इन्सान को”
अपने देश की सामाजिक संरचना अत्यंत जटिल है। क्योंकि देश अनेक जाति, उप-जाति, भाषा आदि में बंटा हुआ है । एक ओर धर्म ने भारतीय जीवन को बिखेरने से  बचाया है, तो दूसरी ओर आड्म्बरो और रूढ़ आचरणों की शरण में चला गया । इन्ही आचरणों ने सामाजिक विकास की गति में  बाधा उत्पन्न भी की है। महाकवि निराला ने अपनी ‘दान’ कविता में एक ऐसे  विप्र पर व्यंग्य किया है  जो भूखे भिखारी को तड़पता छोड़कर बंदरो को मालपुए खिलाता है। निराला यहाँ उस बात की ओर संकेत कर रहे है कि मनुष्य का आचरण पशुओं से भी गयाबीता दिखाई देता है। वह लिखते है…
“झोली से पुए निकाल लिए
                   बढ़ते कपियों के हाथ दिए,
                   देखा भी नहीं उधर फिरकर
                   जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर।
वर्तमान समय में सामाजिक संस्कृति की मूल्यनिष्ठा प्रेम, करूणा, सहयोग, परस्परावलंबन और त्याग भावना के स्थान पर स्वार्थ, द्वेष और घृणा की प्रबलता होती जा रही है। संस्कृति के इस विघटन में अर्थ  केंद्रित यांत्रिक जीवन प्रणाली ही मुख्य रूप से कारणीभूत है। इस प्रणाली में स्वार्थ परक आत्म केंद्रियता के कारण व्यक्ति –व्यक्ति, समुदाय –समुदाय और वर्ग-वर्ग के बीच में घृणा का भाव उत्पन्न हो रहा है। आधुनिक कवियों ने इस निरंतर बढ़ती हुई घृणा वृत्ति को अनेक संदर्भ देकर अपनी कविता का विषय बनाया है। हमें यह देखने को मिलता है कि जिस प्रकार व्यक्तियों, समुदायों का समाज में बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार सामाजिक संबंध बिगडने से सांस्कृतिक पतन को देखा जा सकता है।
          सांस्कृतिक पतन की गतिविधियों को कविता में दिखाने वाले कवियों में मुक्तिबोध जी अपना विशेष स्थान रखते है। सामाजिक प्रगति को  बाधित करने वाले तत्वों को तथा मानवता का मूल्य घटानेवाली बातों को मुक्तिबोध जी खोलकर समाज के सामने रख चुके है। मुक्तिबोध जी का व्यंग्य भी सार्थक और सजीव होता है। इसीलिए उनका व्यंग्य सही जगह गहरी चोट करता है। उन्होने हर विषय पर व्यंग्य में लिखा है। आधुनिकता तथा आधुनिकता के नाम पर होने वाले अत्त्याचार को भी उन्होने अपने व्यंग्य कविता का विषय बनाया  है। ‘चाँद का मुह टेढ़ा है’ में नगरीय जीवन की कुरूपता, विकृति और मूल्यहीनता पर सशक्त व्यंग्य है। कविता में बारी –  बारी से नगरीय जीवन के विभिन्न पक्षों को चुना है। नगरीय जीवन की संस्कृति को पतनशील पूंजीवादी संस्कृति का ही रूप मानते हुए वह स्पष्ट लिखते है।
                    किग्सवे में मशहूर
                    रात की है जिन्दगी
                    सड़कों की श्रीमान
                    भारतीय फिरंगी दूकान
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                    सफ़ेद
                    अंडवीयर सी, आधुनिक प्रतिकों में,
                    फैली थी, चांदनी…
इस प्रकार आधुनिक जीवन शैली पर उनका प्रहार प्रतीत है।     
          निष्कर्ष रूप में कहा जाय तो आधुनिक कालीन कवि परिर्वतन की तीव्र आकांक्षा से प्रेरित होने के कारण अपने काव्य में सामाजिक परिवेश की विसंगतियों पर सीधा प्रहार करते दिखाई देते है । इस धारा के कवियों को समाज में जहाँ कही भी आधुनिक असंगत लगा वहाँ इन्होने व्यंग्य जड़ दिया है। फिर चाहे ग्रामीण और नगरीय जीवन हो, या परंपरा । आत्मा के भीतर तक पहुँच कर जागृति उत्पन्न करनेवाला प्रयास व्यंग्य द्वारा किया है।

संदर्भ:
१.         शिवदत्त ज्ञानी- भारतीय संस्कृति
२.         डॉ. मामा आठले- इतिहास और संस्कृति
३.         डॉ. जितराम पाठक- आधुनिक हिन्दी काव्य में राष्ट्रीय चेतना
४.         दिनकर- कुरूक्षेत्र
५.         बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’- हम विषपायी जनम के
६.         डॉ. रमाशंकर मिश्र- हिन्दी कविता: प्रयोगशील ‘आलोचना’
७.         हरिकृष्ण प्रेमी- अग्निगान
८.         गोपाल दास ‘निरज’- प्राणगीत
९.         निराला- दान (अनामिका)
१०.      मुक्तिबोध- चाँद का मुंह टेढा है।
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Saturday, 5 April 2014

पारिभाषिक शब्दावली और अनुवाद




पारिभाषिक शब्द उन्हे कहा जाता है जो सामान्य व्यवहार या बोलचाल की भाषा के शब्द न होकर ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से जुडे होते हैं । जैसे समाजशास्त्र, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र,वनस्पति विज्ञान,जीवविज्ञान,दर्शन,मनोविज्ञान,अर्थशास्त्र,राजनितिशास्त्र,तर्कशास्त्र, गणित आदि। डा. भोलानाथ तिवारी के अनुसार विभिन्न ज्ञान विज्ञान या शास्त्र में जिनकी अर्थ सीमा परिभाषित या निश्चित रहती हैं उन्हे पारिभाषिक कहा जाता है। तो स्पष्ट है ‘परिभाषा सापेक्ष होने के कारण ही इन्हे ‘पारिभाषिक’ कहा गया है।
यह कहना अतिशोक्ति नहिं होगा की पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। इसका विवेचन भाषा तथा समाज वैज्ञानिक दोन्हो स्तरों पर संभव हैं। भाषिक  संरचना में सामान्य  और पारिभाषिक शब्दों में खास अंतर नहीं हैं। परंतु अर्थ की दॄष्टि से सामान्य और पारिभाषिक शब्दो के बीच अंतर अवश्य है। सामान्य शब्दो को आवश्यक्तानुसार अभिधा, लक्षणा और व्यंजना इनमें से किसी भी रुप में ग्रहण किया जा  सकता है। लेकिन पारिभाषिक शब्दों को नहीं। यहाँ शब्द को अभिधार्थ में ही ग्रहण किया जाता है। साहित्यिक या सामान्य भाषा व्यवहार में प्रभावोत्पादकता के लिए शब्द के अर्थ का विस्तार कर सकते हैं। परंतु पारिभाषिक शब्दावली में यह संभव नहीं है। उदा- ‘आशा की किरण’ या ‘वह गधा है’। ये शब्द साहित्यिक या सामान्य व्यवहार में लाक्षणिक अर्थों में प्रगट होते है।परंतु पारिभाषिक शब्दों में इस प्रकार का विचलन कदापी संभव नहीं है। क्योंकि भौतिकशास्त्र में ‘किरण’ शब्द अपने मूल अभिधार्थ ‘प्रकाश की किरण’ के रूप में ही अपनाया गया है। वैसे ही –
‘गधा’ शब्द प्राणीविज्ञान में केवल ‘जानवर’ विशेष के अर्थ में ही ग्रहण किया जाता है। मूर्ख या बेवकूफ के अर्थ में कदापी नहीं। इस प्रकार पारिभाषिक शब्द अपने विषय क्षेत्र में एक ही अर्थ में ग्रहण किए जाते है। शास्त्रिय विषयों की अभिव्यक्ति के लिए पारिभाषिक शब्दों का महत्व है। क्योंकि इस तरह के विषयों में यह बहुत आवशक होता है। वक्ता जो कहना चाहता है या लेखक जो लिखता है वह श्रोता या पाठक तक ठीक उसी रूप में पहूँचना चाहिए। न कि अर्थ विस्तार होकर। एक बात यह भी है कि ऐसा तभी संभव हो सकता है जब उस विषय की संकल्पना या वस्तुसूचक पारिभाषिक शब्द सुनिश्चित है। या उस भाषा या विषय के सभी लोग उस अर्थ में ही उस शब्द का प्रयोग करते हो। यदि अर्थ सुनिश्चित नहीं होगा तो वक्ता की बात को श्रोता या लेखक की बात को पाठक अलग या दूसरे अर्थ में लेने की संभावना अधिक रहेगी। सुनिश्चित पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से सबसे बडा फायदा यह होगा की आज किसी विषय पर लिखी गई बात को भविष्य में भी लोग ठीक रूप में समझ सकेंगे। किसी भी भाषा के पारिभाषिक शब्दों को विभिन्न आधारों पर भी बाँटा जा सकता है। * इतिहास के आधार पर. * प्रयोग के आधार पर * सूक्ष्मता के आधार पर * श्रोत के आधार पर * और विषय के आधार पर.
पारिभाषिक शब्दों का अर्थ बाह्य संरचना से भी अधिक उनके गर्भ में निहित होते हैं। उदा- ‘रेखित चेक’ इसका सामान्य अर्थ है ‘एक ऐसा चेक जिस पर रेखा खींची गई हो’ परंतु बैंकिंग के पारिभाषिक शब्द के रूप में इसका तकनीकी अर्थ होगा ‘एक ऐसा चेक जिस के ऊपर बायीं ओर दो समांतर रेखाएँ खिंची हो जिसका भुगतान उसी को हो सकता है जिसके नाम चेक कटा हो, चेक धारक को नहीं, आदि । पारिभाषिक शब्दों की मूल प्रवॄत्ति अर्थ के सूक्ष्मिकरण की ओर होती है।जिसके कारण पारिभाषिक शब्द किसी विशिष्ट या सूक्ष्म शब्द का वाचक बन जाता है। जैसे ताप, गरमी, उष्मा और उष्णता के सामान्य अर्थो  को संकुचित करके उनमें भेद कर देता है, और उनके अर्थ लक्षणों को इन शब्दों के बीच परिपूरक वितरण में बाँटता है। वह cold (ठंडा,अतप) cooling (शीतन) refrigeration (प्रति्शीतन) chilling (द्रुतशीतन) के बीच तकनीकी भेद बरतता है। वह (किरण) ray (किरणपुंज) beam  और (विकिरण) radiation  में भी तत्वगत अंतर करता है। कुछ एक पारिभाषिक शब्दों में निहित पारिभाषिकता या तकनीकी पण की मात्रा में अंतर भी होता है। कुछ में कम तो कुछ में ज्यादा पारिभाषिकता की मात्रा होती है। कुछ एक पारिभाषिक तथा अपारिभाषिक दोन्हो में प्रयुक्त होने की क्षमता रकते है। इसलिए कभी-कभी ऐसे शब्दों को पूर्ण पारिभाषिक तथा अर्ध पारिभाषिक में विभाजित किया जा सकता है। जैसे अणु (molecule) परमाणु (atom) रेडियोएक्टिवता (radioactivity) जीन (gene) स्वनिम (phoneme) रूपिम (morpheme)उपस्वन (allophone) आदी। पारिभाषिक शब्द अपने –अपने विषय क्षेत्रो में पूर्ण तकनीकी अर्थो में प्रस्तुत होते है। इनके विपरित कुछ शब्द ऐसे होते  है जो मूलतः पारिभाषिक होते हुए भी एकाधिक ज्ञान की शाखाओं  में प्रयुक्त होते है। ऐसे शब्दों को कुछ विद्वान अर्धपारिभाषिक नाम से संबोधित करते है । डॉ.सूरजभान सिंह के अनुसार पूर्ण और अर्धपारिभाषिक शब्दों के बीच की सीमा रेखा क्षीण और विवादास्पद है। जैसे लाभांश (divident) प्रतिनियुक्ति (deputation) प्रजातंत्र (democracy )अधिसूचना (notification) आदि। कई ऐसे भी शब्द है जो संदर्भ के अनुसार तकनीकी अर्ध-तकनीकी और गैर-तकनीकी इन तीन्हो अर्थों में प्रयुक्त होने की क्षमता रखते है। तकनीकी सामग्री के अनुवाद के अंतर्गत नियम पुस्तिकाओं का समावेश होता है। जिनमें अनेक ऐसी संकल्पनाएँ होती है जो विषेश प्रकार की होती है। अर्ध-तकनीकी के अंतर्गत स्थायी प्रकॄति की सामग्री माने विविध साहित्य, सामान्य आदेश आदि का समावेश होता है। और गैर-तकनीकी के अंतर्गत सामान्य नियमावलियाँ आदि का समावेश है। उदा- जैसे अंग्रेजीका speaker शब्द तीन भिन्न अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। तकनीकी अर्थ ‘संसद का अध्यक्ष’ अर्ध-तकनीकी ‘लाऊडस्पिकर’ तथा गैर-तकनीकी वक्ता।
          पारिभाषिक शब्दों के सामान्य तथा तकनीकी अर्थों के बीच का संबंध पारदर्शी और अपारदर्शी भी होता है। एक बात ध्यान देने योग्य है की पारदर्शी शब्दों के तकनीकी अर्थ स्वतः स्पष्ट होते है। उदा- हिन्दी का स्तनधारी (mammal) आकस्मिक अवकाश (casual leave) नपुंसक लिंग (nature gender) स्त्रीरोग विज्ञान (gynecology) मनोविकार (psychiatry) शरीर रचना (anatomy) रक्तश्राव (hemorrhage) अस्थिरोग विज्ञान (orthopedics) और त्वचारोग विज्ञान(dermatology) इन में हिन्दी के शब्द अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों की तुलना में अधिक पारदर्शी है। इसके विपरीत कुछ पारिभाषिक शब्दों की  बाह्य संरचना से उनके वास्तविक तकनीकी अर्थ का स्पष्ट बोध नही होता है। ऐसे शब्द अपारदर्शी कहलाते है। अधिकर नाम पर बने पारिभाषिक शब्द प्राय अपारदर्शी होते है। जैसे फारेनहाइट, वोल्टमिटर, एम्पियर, आदि। कई पारिभाषिक शब्द मिथ्यानाम (misnomer) भी होते है। जो गलती से किसी भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हो जाते है। उदा- gavil शब्द । यह हिन्दी के घड़ियाल शब्द का अंग्रेजी लिप्यांतरण है। परंतु पह्ली बार गलती से ‘R’ की जगह ‘V’ पढ़ लिया गया। परिणाम स्वरूप बाद में इसी रूप में अज्ञानवश प्रस्तुत होता गया। कई बार ऐसा भी देखने को मिलता है कि जिस समय वह शब्द बनाया गया हो उस समय वह शब्द संकल्पना के अनुरूप होता है। आगे जाकर नई खोज के फलस्वरूप उसकी संकल्पना में परिवर्तन हो जाता है। परंतु रूढ़ हो जाने के कारण वह शब्द उसी रूप में उपयोग में भी लाया जाता है। उदा- मलेरीया (malaria) यह लेटिन मल (bad) तथा एरॉस (air) से मिलकर बना है। एक समय यह माना गया था कि मलेरिया का रोग गंदगी या गंदी हवा से होता है। इससे यह नामकरण हुआ था। अनुसंधान के बाद यह पता चला की यह बीमारी मच्छर के काटने से होती है न की गंधगी से। लेकिन रूढ़ होने के कारण इसके लिए मलेरिया शब्द का ही उपयोग होता गया। इसी प्रकार ‘pay’ शब्द (पेमेंट) भुगतान का संक्षिप्त रूप है। परंतु इसे भ्रमवश वेतन के अर्थ में ग्रहण कर चुके है। जब की सही रूप भुगतान है। बहुत कम पारिभाषिक शब्द अपनी संरचना के माध्यम से तकनीकी अर्थो की संपूर्ण विविधता को एक दो शब्दों के भीतर समेट पाना संभव नहीं। सामान्यतः किसी तकनीकी संकल्पना के विभिन्न अर्थ लक्षणों में से एक दो प्रमुख लक्षणों के आधार पर मानकर संपूर्ण संकल्पना का नामकरण कर दिया जाता है। शेष अर्थ लक्षण परिभाषाओं के माध्यम से प्राप्त किए जाते है।
मानकता: यदि पारिभाषिक शब्द मानक नही होगा तो वह सही अर्थ में पारिभाषिक नहीं होगा। मानकीकरण प्रक्रिया का पहला चरण है। ‘रूपों की विविधता को कम करना’। मानकता से पूर्व एक ही तकनीकी संकल्पना के लिए अधिक शब्द या रूप प्रचलित हो सकते है। ऐसे एकाधिक शब्दों या रूपों में से एक शब्द रुप का चयन मानकीकरण का प्रथम चरण है। इसे विव्दान हागेन(1966) ने कोडीकरण (codification) की प्रक्रिया कहा है। और फिटकार्डर ने (1950) ने इसे अंतर्राष्ट्रीयता का गुण कहते है। न्यूस्तुप्नी (1970) इसे स्थिरीकरण (stabilization) कहते है। कोडीकरण के फलस्वरूप समान विषय क्षेत्रो में काम करनेवाले विशेषज्ञनों के बीच दूरी होने पर भी सफल संप्रेषण संभव होता है। साथ ही इस शब्दावली में समरूपता आती है। इसका लक्ष्य ‘एक शब्द का एक ही अर्थ’। उदा- डायरेक्टर (director) शब्द के लिए विभिन्न हिन्दी भाषी क्षेत्र में ‘निदेशक’, ‘निर्देशक’, ‘संचालक’, तथा प्रबंधक आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार इंजिनियर (engineer) शब्द के लिए इंजिनियर, अभियंता और तंत्री शब्द का प्रयोग मिलता है। पर्यायों की इस विविधता के बिच एक अर्थ के लिए एक शब्दरूप का चयन या निर्धारण शब्दवली की मानकीकरण प्रक्रिया का पहला सोपान है। देश में राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के निर्माण का अभियान इसी प्रक्रिया का एक अंग है। जिसका लक्ष्य पारिभाषिक शब्दावली के पर्यायो में यथासंभव समरूपता लाता है। मानकीकरण का दुसरा चरण है विस्तारीकरण इससे तात्पर्य है ‘व्यवहार या प्रकार्य की विविधता को अधिक से अधिक बढ़ाना। क्योंकि इसका प्रयोग क्षेत्र जितना व्यापक होगा ये उतने ही अधिक मानक होंगे। इसी प्रक्रिया में इन शब्दों का प्रयोग परीक्षण भी होता है। जिससे इन्हे सामाजिक स्वीकॄति या अस्वीकृति मिलती है। साथ ही इसी दौरान शब्दावली का पुनरीक्षण और संशोधन भी होना संभव है। शब्दो का निर्माण करना अपने में लक्ष्य नहीं बल्की प्रयोग तक पहूँचने का प्रथम सोपान है। नवे शब्दों की सार्थकता उसके प्रयोग में है। यदी वे शब्द प्रयोग या प्रचलन में नही आ पातें  तो व्याकरण और चयन की दॄष्टी से उत्कॄष्ठ होते हुए भी निरर्थक है। प्रयोग सिद्धि ही ऐसे शब्दावली की असली कसौटी है। यह प्रक्रिया भाषा को उसकी अंतिम मंजिल तक पहूँचा देती है। और अपने शैली वैशिष्ट व्यवहार क्षेत्र के कारण अन्य व्यवहार क्षेत्रों की भाषा शैली से भेद बनाए रखती है। इसी को हैलिडे मिकिन्तोरा और स्ट्रीवेन्स (1964) ने प्रयुक्ति (register) की संज्ञा देते है।
शब्द निर्माण: अपने व्यवहार में नई बातों की आवश्यता आम बात है। लेकिन यह भी सत्य है कि जब किसी संकल्पना के लिए नए शब्द की आवश्यता होती है तो तुरंत नए शब्दों का निर्माण करना कठीन होता है। ऐसे में पहला प्रयास यह होता है की यथासंभव भाषा भंडार में उपलब्द ऐसे किसी शब्द को लिया जाता है। जो स्वतः स्पष्ट हो। या वस्तु के गुणधर्म का अधिक बोध कराने में समर्थ हो। हिन्दी भाषा में भी तकनीकी शब्दावली के निर्माण में इन्ही युक्तियों का प्रयोग होता आया है। जो निम्नलिखित है। -
             १. अर्थ विस्तार- इस में निकटस्थ बोध कराने वाले उपलब्द शब्दों को नए तकनीकी अर्थ में रूढ़ कर दिया जाता है। ऐसे में वे शब्द पुराने तथा नए दोनों अर्थों में प्रयुक्त होते है। - जैसे बिजली, आकाशवाणी,विमोचन आदि।
२. अर्थ संकोच – भाषा के शब्द भंडार में ऐसे शब्दों को लिया जाता है जो निकटस्थ हो
और व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता हो। इसी तरह के शब्दों के अर्थ को संकुचित कर किसी विशेष तकनीकी अर्थ के लिए रूढ़ कर दिया जाता है। उदा- संसद (parliament) जनगनना (sensus) संस्कॄत भाषा में इसका प्रयोग किसी भी प्रकार की सभा के लिए किया जाता था। इसी तरह जगनना का सामान्य अर्थ जनों की गनना करना है। लेकिन अब सेनसस मात्र के लिए रूढ़ हो गया है। 
३.अर्थ सर्जन: यहाँ शब्द उपलब्ध न होने के कारण पूरी तरह नए शब्दों का निर्माण करना पडता है। शब्दों का निर्माण प्रायः धातु या शब्द में प्रत्यय तथा उपसर्ग लगाकर या समस्त पद बनाकर किया जाता है। जैसे – संकाय, (faculty) नसबदी, सर्वहारा, विमान-पारिचारिका, परियोजना (project) अभियंता (engineer) आदि।
४. शाब्दिक अनुवाद: कुछ तकनीकी शब्द मूल या मध्यस्थ भाषा के अनुवाद द्वारा प्राप्त किए जाते है।कभी-कभी इस प्रकार का अनुवाद अनुदित भाषा के शब्द भंडार से मेल नही खाता
लेकिन कोई भाषा समाज मध्यस्थ भाषा का सामु्हिक स्तर पर प्रयोग करता है तो इस प्रकार का शाब्दिक अनुवाद सहज लगने लगता है। उदा- श्वेतपत्र, लालफिताशाही, वायुप्रदूषण, स्वर्णजयंती कालाधन आदि।
          ५. अंग्रेजी शद्बों का ग्रहण: अंर्तराष्ट्रीय शब्दों को या ऐसे शब्दों को जो हिन्दी में रच पच गए हैं और अत्याधिक प्रचलन में हैं, यथावत ग्रहण कर लिया जाता है। उदा- बैंक, स्टेशन, नोटिस, बल्ब, हीटर, रेलवे आदि। कुछ शब्दों का उच्चारण व लेखन की दृष्टि से हिन्दी करण कर लिया जाता है। जैसे- अकादमी, कामदी, त्रासदी, तकनीकी डॉक्टर आदि।
          ६. मिश्रपद्धति: इस पद्धति में अंग्रेजी शब्दों में हिन्दी के प्रत्ययों को जोडकर शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे- रजिष्ट्रीकॄत, कार्बनिकरण, शेयर धारक, कोडीकरण आदि।
अनुवाद: अनुवाद में विचारों का एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण होता है। हिन्दी में तकनीकी शब्दों या पर्यायों के निर्माण में अनुवाद पर्याय प्रक्रिया की बुहुत बडा योगदान रहा है। अनुवाद पर्याय में भी मोटे तौर से सामान्य अनुवाद प्रक्रिया की तरह दो युक्तियों का विेशेष उपयोग किया जाता है। एक शब्दिक अनुवाद तथा दूसरा भाषानुवाद। उदा- (green revolution) के लिए हरित क्रांति, (black money) के लिए कालाधन। वैसे ही (out station cheque) के लिए बाहरी चेक,यह भाषानुवाद है। अनुवाद करते वक्त तकनीकी शब्दों की भूमिका भी महत्व पूर्ण होती है। विशेषकर ज्ञान विज्ञान तथा टेकनालॉजी के विषय में। क्योंकि तकनीकी पर्याय जहाँ एक ओर अनुवाद में सहायक होते है वही दूसरी ओर उचित प्रयोग न करने पर भाषा में दुरूहता भी आ जाती है। उदा- (food ministry) खाद्य मंत्रालय के लिए भोजन मंत्रालय आदि। कभी-कभी एक ही अंग्रेजी तकनीकी शब्द के लिए अलग-अलग विषय क्षेत्रो या संदर्भो में अलग –अलग पर्यायों के प्रयोग की भी जरूरत पड़ती है। जैसे- (charge) के लिए कार्यभार- प्रशासन में, व्यय- लेखा में, आरोप- विधी में, उधार- वाणिज्य में, धावा- राजनीति विज्ञान में। वैसे ही एक और शब्द है (credit) उधार या ऋण-  अर्थ शास्त्र में, क्रेडिट- शिक्षा में, श्रेय- साहित्य में आदि। ऐसे स्थिति में अनुवादक की बहुद बडी जिम्मेदारी यह होती है कि शब्दों के संदर्भ और अर्थ  को ठीक से समझे और आवश्यकतानुसार योग्य पर्याय का चयन करें।.


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Saturday, 29 March 2014

दलित कहानी और स्वानुभूति

दलित साहित्य में स्वानुभूति को व्यक्त करने पर अधिक बल दिया गया है। हिन्दी साहित्य में अन्य विधाओं के साथ – साथ कहानियाँ भी विशेष दस्तावेज के रूप में सामने आती दिखाई देती है। यह कहानियाँ घडाई नहीं है। बल्की इन्हे दलितों के सामाजिक जीवन से उठाई गई है। दलित सामाजिक जीवन को वाणी देते हुए हरपाल सिंह कहते है की “सामाजिक यथार्थ को ध्वनित करने वाली कहानियाँ ही दलित साहित्य में ऊर्जा की सार्थक तरंगे उठा सकी है। यह निर्विवाद सत्य है की भारतीय समाज जातीय दृष्टि से विभाजित समाज है”।१इसी विभाजन ने मनुष्य की विवेक शक्ति तथा समानता को नष्ट कर दिया है। अपने देश में सामाजिक भेदभाव में उच्च समझनेवाले वर्ग ने सामाजिक जीवन में हीनता बोध पैदा करके तमाम ऐसे कार्य किया हैं जिससे दलित समाज का जीवन निकृष्टतम होता गया।

भारतीय समाज में दलित वर्ग के लिए किसी रूप में दो बातें सदा जूड़ी है। वह है शोषण और अपमाण। फिर चाहे वह दलित समाज का व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित अपमान होना निश्चित है। इससे भी भयानक स्थिति यह है की अपनी स्वार्थ पूर्ति होने तक हिन्दू समाज इस दलित समाज को अपने ही समाज का एक हिस्सा समजता है और बातों में इन्हे पूसलाने का काम भी करता है । परंतु काम पूरा होते ही वह तुरंत अपना रंग बदल लेता है और उन्हे दूर करता है। ‘रूप नारायण सोनकर की कहानी ‘सद्गती’ में इस सवर्ण मानसिकता का पर्दापाश हुआ है’। 

भूमंडलिकरण के इस दौर में समानता और मानव अधिकार की बात चल रही है। ऐसे में जाति प्रथा का अस्तित्व जारी रहना वाकई शर्मनाक है। समानता के प्रति आज के परिप्रेक्ष्य में चिंता एवं चिंतन दोनों का विषय बना हुआ है। अच्छे एवं स्वस्थ समाज के लिए समानता की अति आवश्यक्ता है। ऐसी स्थिति में साहित्य के माध्यम से आंतरिक अनुभूति व्यक्त होना स्वाभाविक है। इस तरह की स्थिति पर डा. पशुपतिनाथ लिखते है “दलित साहित्य का स्वरूप एक क्रांतिकारी परिर्वतन एवं मौलिक समानता का संघर्ष बनता जा रहा है। यह संघर्ष आज का नहीं बल्कि जब से पिछडे दलित है तब से उनकी समस्या पर विचार का क्रम चल रहा है। फिर भी सवर्ण मानसिकता बदली हुई दिखाई नहीं देती ।अनपड़ तो अनपड़ पढे़ लिखे लोग भी इनसे अपमान जनक बाते बोलने में पिछे नही हटते। शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ दलितों ने अपनी प्रगति करना शुरू किया उतना ही उनका विरोध भी शुरू हुआ”२। इस तरह की अपमान जनक स्थिति का चित्रण चंद्रभान यादव की कहानी ‘गाम्धी जयंती’ में हुई है। किसी भी महान पुरूष की जयंती या पुण्यतिथि को मनाने का मुख्य हेतु यह होता है की उनके कार्य, त्याग बलिदान, साथ हि उनके चिंतन एवं दर्शन को याद करके उस राह पर चलनेकी कोशिश करना । ऐसी बातों पर भाषण देना आसान है परंतु उस पर अमल करना बहुत कठिन है। 

समाज में निरंतर परिर्वन होता रहता है। इसके साथ सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। इस गतिशिल सामाजिक परिवर्तन की एक छाप हमें साहित्य में देखने को मिलती है। विश्व में मानवतावादीयों ने धर्म तथा रूढ़ियों और परंपराओं को त्यागते हुए सभी मानवों को एकता के सुत्र में बांधकर संपूर्ण मानव को ही अपना केंद्र घोषित किया है। साथ ही अमानवीयता का घोर विरोध करते हुए उन्होने नवीन विचार धारा को जन्म दिया है। परंतु भारत जैसे देश में परंपरावादी दृष्टिकोन रखने वाली समाज के मन पर उसका असर अभी पूरी तरह से नहीं हुआ है। गौर से देखा जाय तो परंपरावादी विचारों को बढ़ावा देने का काम कही – कही दलित समाज भी करता है। परंतु इसके पीछे उनकी कुछ एक मजबुरियाँ भी हुआ करती है। जैसे आर्थिक कमजोरी और अशिक्षा भी एक है। सरकार की तरफ से जो सुविधा मिलती है उसका पूरा लाभ यह समाज उठा नहीं पाता है। कारण इनमें एकता की कमी है। वर्तमान समय में भले ही दलितों में कुछ संघटनाएँ बनी हैं परंतु उन्हे भी तोड़ने की कोशिश सवर्ण समाज करता आया है। इतना ही नहीं वह उसमें सफल भी होता है। क्योंकि उनके हतकंडे उतने मजबूत है। धर्मेंद्र कुमार की कहानी ‘मुखिया’ में उर्पयुक्त विचार धारा की सत्यता पाई जाती है। कहानी में दलित चमारों के जीवन गाथा का चित्रण काफी मर्म स्पर्शी हुआ है। इनके जीवन की वास्तविकता को दर्शाते हुये कहानीकार ने एक जगह कहा है “नीच जातियों में एकता का अभाव होता है। क्योंकि वह अशिक्षित होते हैं। बडे लोगों की चालों को समझ नहीं पाते है। जिनके पास हजारों रोटींयाँ है, वह एक रोटी खाने का गम नहीं करेंगा, किंतु एक रोटी वाला व्यक्ति जान पर खेल जाय तो कोई आश्यर्य नहीं। सदा की भाँती यहाँ भी उच्च जाति ने निम्न जाति को विखंडित करने में पूर्ण महारत हासिल की थी”।३ दलितों की स्थिति का यह सच्चा चित्र है जो देश के किसी भी कोने में बसे दलित पर लागू होती है। 

हिन्दी के साहित्यकार और चिंतक सामाजिक समस्याओं के प्रति सदैव जागरूक रहें है। दलित जीवन संबंधी अधिकांश कहानियाँ किसी न किसी समस्या को लेकर ही लिखी गई है। वास्तव में इन समस्याओं का मूल कारण यही हो सकता हैं की दलितों के विकास के प्रति सर्वण समाज की उदासीनता और सवर्ण के साथ बराबरी की तिरस्कार की भावना। जयप्रकाश कर्दम की कहानी ‘मोहरे’ उपर्युक्त बातों के लिए खरी उतरती है। कहानी में बच्चों का भविष्य बनाने के लिए पूरे मनोयोग और निष्ठा के साथ अपनी सेवा निभाने वाले प्रामाणिक अध्यापक सत्यप्रकाश के स्थानांतरण के लिए सवर्ण अध्यापक रामनरेश त्रिपाठी तथा अन्य अध्यापकों ने जो रास्ता अमनाया वह शिक्षकी पेशा के लिए एक दाग है। 

हिन्दी साहित्य के अंतर्गत दलित जीवन संबंधी जो कहानियाँ लिखी गई, और लिखी जा रही हैं उनमें अधिक तर जोर सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकता को दर्शाना रहा है। वर्तमान समाज में जो भी अपमान भरा असंतोष जनक वातावरण भरा है उसे दर्शाने में वर्तमान कहानियाँ कटीबध्द है। इस संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह मनुष्य का ही एक लघु रूप होता है । परंतु हिन्दु समाज में बनी जाति-धर्म की विचारधारा या मान्यताओं के अनुसार उसका रूप बदलने में देर नहीं लग जाती। बहुत कम समय में वह किसी जाति या धर्म का हो जाता है। और इसी के साथ समाज में उसके उच्च -निच्च होने का स्थान भी तय हो जाता है। इसी विचार या परंपरा के चलते भविष्य में भी उसके कर्म श्रेष्ठ होने पर भी जाति के आधार पर शोषण किया जाता है। मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘दर्द’ इसी परंपरागत विचारधारा का रेखांकन करती है। कहानी में स्वतः लेखक ने एक जगह पर कहा है “जो समाज में नियम था वही सरकार में भी था”।४ कहानी में हरभजन एक राज्य सरकारी की नोकरी करता है । वह उसे विरासत में मिली थी । उनके पिता भी वही काम करते थे। उनकी मृतु एक दुर्घटना में हुई थी । तो हरभजन को चपरासी के बदले चपरासीगरी ही मिली । उस समय उनकी शिक्षा मैट्रिक थी। परंतु उनको वह नियम बताया गया और पदोन्नती का आश्वासन दिया गया। काम पर हाजिर हुए पहले दिन ही कार्यालय के बड़े बाबू से तिरस्कार भरी बात सूनने को मिली थी। उनका कहना था “चपरासी के बेटे होकर चपरासी नहीं बनोगे तो क्या लाट साहब बनोगे?”५ इस तरह की शुरवात हुई उस नौकरी का अंत भी सुखात्मक नही हुआ। जब हरभजन ने अपनी पदोन्नती के लिए कोशिश की तब उसे मुख्यालय से सफलता मिलती है । लेकिन बडे बाबू शर्मा उसके रास्ते का कांटा बन जाते है। उसके पदोन्नती के पत्र को उन्होने रोख रखा था। पूछताछ के समय बड़े बाबू शर्मा उनके सारे वजूद को हिलाकर रख देते है। इससे पता चलता है की जाति के सवाल कितने निर्मम होते है। “बडे बाबू शर्मा कहते है हरभजन मेरे जीते जी तू इस ऑफिस में बाबू नहीं बन सकता। चपरासगीरी कर और अपने बच्चों को पाल”।६ उनकी दर्द भरी बाते सुनकर हरभजन हताश हो जाता है। उनके मन में रह- रह कर यही सवाल आता है की ‘उसके पिता चपरासी, वह चपरासी, क्या उनका बेटा भी चपरासी ही बनेगा? इसी सोच के कारण हरभजन के सीने में तेज दर्द उठता है। यह दर्द उनके शरीर को हमेशा के लिए ठंडा कर देता है। उच्चता के उन्माद में भरे सवर्ण अधिकारी की बाते एक व्यक्ति के जीवन कोही पूरी तरह से खत्म कर देती है। 

२१वीं सदी के प्रथम दशक की कहानियों में सामाजिक समानता एवं मानवीय संवेदना का चित्रण हैं। जिस में सामाजिक अंर्तविरोधों की तिव्र समझ, पारंपारिक आस्थाओं एवं अंधविश्वासों का विखंडन संप्रदाय की घृणित अभिव्यक्ति मानवता शून्य समाज की कटू आलोचना तथा दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति, शोषकों के प्रति तिव्र आक्रोश सामाजिक यथार्थ में मानवता की और सामाजिक परिवर्तन आदि की माँग है। 

इस दशक की कहानिकारों ने सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों एवं विद्रुपताओं को अपनी कहानी का कथ्य बनाया है। उच्चता के उन्माद में घिरे हुए सवर्ण व्यक्ति की अमानवियता का चित्रण ‘डंक’ कहानी में रत्न कुमार सांभरिया ने प्रस्तुत किया है। “मनु की उक्ति है, शूद्र का धन संचय ब्राह्मण को पिड़ा पहुचाता है”।७ प्रस्तुत कहानी में यह उक्ति गाँव के कुटिल बाह्मण सतना के दिमाग को टटोलकर जागृत करती है। वास्तव में सतना दरिद्र ब्राह्मण था। अपनी बेटी का विवाह करने योग्य परिस्थिति भी उसकी नहीं थी। ऐसे में धनवान दलित खरे उसे पैसे की मदद करता है। परंतु सतना इस एहसान को बहुत जल्दी भूल जाता है। साथ पैसे लौटाने के बदले दलित खेरा को पिटवाकर कमर तोड देता है। 

अपने देश में दलित जन जाति पर अत्याचार और अन्याय की एक लंबी दास्तान पाई जाती है। देश तो आझाद हुआ, परंतु कुछ एक अपवादों को छोडकर आज भी परंपरावादी उच्चता का उन्माद भरनेवाले सवर्ण जनों के चंगुल से पिछड़ी दलित जन-जातियों को आझादी नहीं मिली है। आज भी कुछ एक मामलों में अपना वर्चस्व बनाने की भरपूर कोशिश करते हैं। भारत रत्न डा. बाबासाहेब अंबेडकर के प्रयत्न स्वरूप प्रशासनिक बल मिला है। साथ ही शिक्षा के कारण दलितों में काफी मात्रा में परिवर्तन आ गया है। इस परिवर्तन के साथ वर्तमान में सवर्ण समाज के युवा भी जुड़ गए हैं। वह अपने आप में परिवर्तन करके दलितों के साथ, हाथ मिलाने के साथ- साथ घनिष्ठ मित्र भी बने हुए है। परंतु कुछ पुरान पंथी अभी भी अपनी घिसी-पीठी परंपरा से बाज नहीं आए हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानी ‘ब्रह्मास्त्र’ में उपर्युक्त विचार धारा की सत्यता प्रकट हुई है । राज वाल्मीकि की कहानी ‘इस समय में’ भी दलित समस्या की वास्तविकता पर विचार किया गया है। वैसे तो यह कहानी अपने आप में बहुत विषयों को एक साथ लेकर चलती है। जिसमें नव युवा पीढ़ि का देखने का अपना एक तर्जुबा अलग है। इन सारे विषयों के बावजूद जाति पर आधारित जो चर्चा या चित्रण कहानी के माध्यम से हुआ है वह वास्तविकता का दर्शन कराता है। हिंदू समाज में जाति का बटवारा काम के आधार पर हुआ था। परंतु आधुनिक काल में दलितों के कर्म बदल जाने पर भी उन्हे परंपरागत रूढ़िवादी विचारधारा के आधार पर उन्हे आज भी लज्जित किया जाता है। वास्तव में स्कूल के शिक्षकों की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है की विद्यार्थियों में जाति या उच्च –निच्च की भावना या विचार को स्थान न दे। परंतु कभी-कभी जाने- अनजाने में ही सही जिस बात को नहीं बताना चाहिए, उसी बात को शिक्षकों के द्वारा बताया जाता है। इसका बाल मन पर कितना गहरा असर होता है यह बताना बहुत कठिन होता है। यही संदेश ‘इस समय में’ कहानी देती है। 

दलितों पर होनेवाले अन्याय को दर्शानेवाली डा. पूरन सिंह की कहानी ‘अंर्तकलह’ भी एक है। प्रस्तुत कहानी में अप्रैल १४ के दिन डा. बाबासाहेब के जन्म दिवस के अवसर पर दलितों में जो उत्साह और उमंग भरी होती है वह किसी त्यौहार से कम नहीं है। परंतु यह उत्साह सवर्ण समाज को देखा नहीं जाता। इस में बाधा डालने का काम किया जाता है। प्रस्तुत कहानी में इसका सजिव वर्णन हुआ है।

“मेरे विचारानुसार दलितों का यही एक त्यौहार होना चाहिए। अन्य त्यौहारों के नाम पर पैसा और समय बर्बाद करने के बजाय दलितों के मसिहा डा. बाबासाहेब के जन्म दिवस के अलावा पवित्र त्यौहार कौन सा हो सकता है?”। 

आलोक कुमार सातपु्ते की कहानी ‘साहब की जात’ में परंपरागत विचार धारा वाले सवर्ण समाज का दर्शन होता है। गरीब हरिजन मन्नू चमार का बेटा सुखीराम डिप्टी कलेक्टर बन जाता है। इसी खुसी में सारा मुहल्ला भी खुशी में झूमने लगता है। खुशी में घर-घर में चिराग की थालीयाँ सजाई गई थी । चारों ओर त्यौहार का – सा वातावरण था। चमार मन्नू घर के आंगन में लेटकर अपने गरीबी में बिते दिनों को याद कर रहा था। “उसके बाबूजी ने कितने कष्ट सहकर उसे पढ़ाया लिखाया। अब घर के सारे दलिद्दर दूर हो जायेंगे”।८ दूसरी तरफ ब्राह्मण पारा में इसी बात को लेकर मातमी माहौल बना हुआ था। विशेष कर ब्राम्हण पारा के गजेंद्र महाराज के घर पर। गजेंद्र महाराज उस गाँव के मुखिया थे। हरिजन बस्ति के आनंदी मौहोल को देखकर वह बात- बात पर बिगड रहे थे। सामाजिक बांधव्य के आधार पर जिस गाँव गजेंद्र में रहते थे उसी गाँव का पिछडे वर्ग का एक दलित युवा कलेक्टर बनना तो पूरे गाँव के लिए गर्व की बात थी। इस का गर्व सिर्फ हरिजन बस्ती को न होकर संपूर्ण गाँव को होना था। लेकिन यह संभव नहीं था। क्योंकि गाँव एक होने पर भी वहाँ रहने वाले जाति समुदाय अलग –अलग थे। ऐसे में जहाँ सवर्ण का वर्चस्व हो वहा पर दलित युवा का कलेक्टर बनना खुशी की जगह ईर्श्या और द्वेष की भावना का होना स्वाभाविक ही था। 

दलितों के विकास में बाधा उत्पन्न करने की मानसिकता सवर्ण समाज ने अपने पीढ़ि दर पीढ़ि को जैसे विरासत में सौंप दिया है। एक तरफ विद्या पाकर दलित युवा अपना विकास कर लेना चाहता है तो दुसरी तरफ उन्हे आगे न आने देने की भरपूर कोशीश सवर्ण युवा करता है। इसका जीवंत दस्तावेज है श्याम नारायण कुदंन की कहानी ‘छात्रावास’। अपने विश्वविद्यालयिन जीवन में उनके साथ घटीत नारकीय यातना का चित्रण उन्होने इस कहानी में प्रस्तुत किया है। दलित विद्यार्थियों का शोषण करने सवर्ण जाति के विद्यार्थी छात्रावास में किस प्रकार अपनी-अपनी लाबी बनाकर रहते हैं इसका विस्तृत चित्रण इस कहानी में हुआ है। 

जब कोई समाज किसी एक वर्ग का विरोध करता है तब विरोध होने वाले मनुष्य का आचरण दो तरह का हो सकता है। पहला अन्यायी शक्तियों का दृढ़तापूर्वक सामना करके उनके विरोध का दमन कर दे। और दूसरा वह अपनी अस्मिता तथा योग्यता को भूलकर अन्याय एवं दुराचारी के सामने घुटने टेक दे। इस में पहला आचरण विद्रोही है और दुसरा शक्ति और आत्मविश्वास के अभाव का सूचक । दलित समाज सदैव अपनी मान मर्यादा या प्रतिष्ठा और मानवीय अधिकारों से वंचित रहा है। बाकी कारण और भी कई होगें लेकिन इसका मूल कारण हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था ही है। इसी व्यवस्था के कारण दलित समाज आजीवन गुलामी व बदसलूकी को सहता आ रहा है। भारतीय हिन्दू समाज की बनाई जाति व्यवस्था जहाँ अधिक लचिली दिखाई देती है । वही वह लोहे की जंजीर से भी अधिक मजबूत साबित हुई है। 

इस सदी के प्रथम दशक में हिन्दी साहित्य के अंतर्गत बहुत सी कहानियाँ हैं जो दलित समाज के जीवन को दर्शाती है। सामान्यतः हर समाज और काल में कुछ सामाजिक विषमताएँ हमेशा से नजर आती है। इस में दलितों के सेवा भाव को धर्म सन्मान माना और उन्हे हमेशा से नीचे ही रहने की व्यवस्था उच्च समाज करता आया है। जहाँ भी दलितों ने उपर उठने की कोशीश की वहाँ उसे शक्ति और युक्ति दोनों के प्रयोग से दबाया गया। समाज के विकास के लिए सहानुभूति, श्रम और स्वतंत्रता इन्ह तीन्हो की आवश्यता है। परंतु कुछ एक अपवादों को छोडकर धर्म के नाम पर हिन्दू समाज ने एक बडे श्रम करने वाले वर्ग के साथ निर्दयता से व्यवहार करके अपनी कमजोरी का ही परिचय दिया है। 

हिन्दी कहानियों में दलित जीवन संबंधी जो विचार व्यक्त हुए है वह मनोरंजनात्मक न होकर उस समाज का लेखा-जोखा और भोगा हुआ यथार्थ है। 

संदर्भ

१.हरपाल सिंह: - ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में सामाजिक लोकतांत्रिक चेतना.

२. डा. पशुपति उपाध्याय:- समकालिन हिन्दी आलोचना दशा और दिशा. 

३. धर्मेंद्र कुमार:- मुखिया. 

४. मोहनदास नैमिशराय: दर्द 

५. –वही—

६. –वही—

७. रत्नकुमार सांभरिया: डंक 

८. आलोक कुमार सातपुते: साहब की जात. 

ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य में दलित प्रश्न


हिन्दी साहित्य में दलित धारा को आधार रूप प्रदान करने वाले लेखक और विमर्शक साथ ही दलित समाज का दुख और यातनाओं को बिना नाटकीयता का सहारा लिए अपनी भूमिका निभाने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि जी दलित साहित्य के मूर्द्धन्य हस्ताक्षर थे। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से दलित समाज को वाणी दी है। इनका सारा साहित्य वास्तविकता का दर्शन कराते हुए समाज की आँखे खोलने का काम करता है। इन्होंने साहित्य के माध्यम से दलित समाज का अपमान और दुखद भरी जिन्दगी जीने की मजबूरी के खिलाफ अपनी जंग जारी रखी। दलित समाज की वेदना ही इनके साहित्य की जन्मदात्री रहीं है। भारतीय समाज की जाति - व्यवस्था में दलित जाति से मुक्ति का प्रश्न इनके साहित्य के माध्यम से सामने आता है। साथ ही परंपरावादी समिक्षक दलित साहित्य के अस्तित्व को नकारने की कोशिश में लगे रहे उन्हे मुँह तोड़ जवाब भी देता है। उनके साहित्यिक यात्रा में कविता, कहानी, आत्मकथा, आलोचना, विचारोत्तेजक कृति और नाटक (दो चेहरे) आदी समिल्लित है।

मनुष्य को इन्सानियत की राह से भटकानेवाला कारण अगर कोई हो सकता है तो वह है अस्पृशता की विचारधारा। यह बात तो सांप्रदायिक द्वेष से भी भयानक और समाज के लिए अहितकर है। क्योंकि इस तरह की मानसिकतावाला व्यक्ति या वर्ग अपने ही समाज में फूट डालकर सामाजिक एकता में बाधा उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में उच-नीच की विचार धारा के चलते मानव- मानव के बीच जो दूरियाँ और खाई उत्पन्न हुई, इससे सबसे अधिक नुकसान अगर किसी का हुआ तो वह देश का है। भारतीय समाज में वर्ण –व्यवस्था के आधार पर जो समाज का बंटवारा हुआ, उसकी ही देन है जातिभेद जो असमानता, वर्चस्व और शोषण पर आधारित है। 

वाल्मीकि जी का साहित्य स्वानुभूति की चेतना हैं। इसीलिए वह सहानुभूति को जगह नहीं देती । इनका साहित्य स्वयं और समाज के सामने उपस्थित किया जाने वाला प्रश्न हैं - कि दलित व्यक्ति भी सभी मनुष्य तरह मनुष्य ही है और सभी की तरह उसे भी आगे बढ़ने व अवरसों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए वह क्यों नही है? 

वाल्मीकि जी की कविता के संदर्भ में कहा जाय तो इनकी कविता का स्थल अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की स्मृति है। यहाँ जीवन की स्मृतियाँ लौटकर आती है। कविता में जीवन की पीड़ा शब्दबद्ध होकर सामाजिक यथार्थ के आलोक में सामाजिक परिवर्तन की इच्छा दर्शाती है। जीवन संघर्ष के साथ – साथ मानसिक उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए चिंतन भी करती है। जो साहित्य जीवन यथार्थ से जुड़ा है इस में मन को गुदगुदानेवाली बाते न होना स्वाभाविक ही है। वर्ण व्यवस्था से पीड़ित समुदाय की वेदना ही इनकी कविता का स्वर है। यह अस्मिता की तलाश के साथ –साथ अस्तित्व के लिए जूझते सरोकारों को रेखांकित करती है। जैसे “जंगलो, पहाड़ो, नदियों और नालों में खोज रही है, गत और विगत बीच की मौन शिलाएँ”(सदियों का संताप काव्य संग्रह) जातिवादी परंपरा को पोसने वाले और जन्म के आधार पर दलित वर्ग का शोषण करने वाले पुरोहितों को कवि प्रश्न करता है की – ‘चूहड़े या डोम की आत्मा ब्रम्ह का अंश क्यों नही है , मैं नहीं जानता, शायद आप जानते हों ? समाज की सदा सेवा करते रहें किसी के रास्ते में कभी अडचन पैदा नहीं की फिर भी हम अछूत रहे। इस बात की शिकायत उनके काव्य में स्पष्ट दिखाई देती है। शोषण और अपमान के कारण अपनी कविता में एक जगह अछूत होने की इस पीड़ा को भी व्यक्त करते हुये वह प्रश्न करते है की – ‘ नहीं बोएँ काँटे, बाँटे सिर्फ शगुन प्यार के। फिर भी रहे अछूत’। यातना जनित विक्षोभ और यथार्थ को संभालती हुई हेयबोध से मुक्ति और अस्मिता के निर्माण के लिए वे अपना दुख दर्द लिखते है। 

भारतीय समाज में कई तरह के अर्न्तविरोध विद्यमान है। इनमें सबसे अधिक विरोध दलित और सवर्ण कहे जानेवाले समुदायों के बीच में फैला हुआ है। आर्श्चय की बात यह है की समाज की अनिवार्य सेवा से जुडे़ व्यक्ति और समुदायों को हिन्दू समाज ने घृणित और अछूत क्यों बना दिया? यह प्रश्न इनके संपूर्ण साहित्य में उपस्थित है। जाति व्यवस्था अति क्रुर व्यवस्था है। क्योंकि इसका प्रभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक बराबर बना रहता है। इनका साहित्य इसी नियमों के बंधन में घिरे हुए दलित की यातना का चित्र प्रस्तुत करता है। कहानियों के संदर्भ में कहा जाय तो दलित समाज की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कॄतिक क्रिया प्रणालीयों की सच्चाई को उजागर करते हुए दलित समुदाय की पीड़ा और आक्रोश का बेबाक चित्रण प्रस्तुत करते है। इनका पहला कहानी संग्रह ‘सलाम’ जिसमें में कुल चौदह कहानियाँ है । संग्रह की हर कहानी जातीय विशिष्टताओं का यथार्थ पेश कर चुकी है। साथ ही समाज की कड़वी सच्चाई लेकर प्रस्तुत हुई है। इन कहानियों के माध्यम से करोंड़ो दलित जीवन के ऐसे चित्र सामने आते हैं, जिन्हे परंपरागत सामाजिक ढ़ांचे में फिट नहीं किया जा सकता। ‘सलाम’ संग्रह की कहानियों पर शौराज सिंह ‘बेचैन’ ने कहा है “सलाम की कहानियों में दलित जीवन का एक ऐसा यथार्थ है जो परंपरागत साहित्यिक यथार्थ से जुदा है और उस भिन्नता का एहसास कराता है, जो पारंपारिक जीवनदृष्टि और इस नई चेतना के बीच मौजूद है”। इनका दुसरा कहानी संग्रह हैं ‘घुसपैठिये’ जीसमें कुल बारह कहानियाँ है। इन कहानियों का कथ्य उन अमानुषिक स्थितियों, घटनाओं और प्रसंगों से हैं जो नि:संदेह मानवता के नाम पर कलंक है। लेखक इन कहानियों के माध्यम से प्रश्न करता है कि आखिर क्यों हिन्दू समाज व्यवस्था के चक्र में दलितों को कुचल दिया गया? कहानियों की अर्त्नवस्तु लेखक के अनुभव जगत की त्रासदियों और दुखों से उपजी आत्मिक संवेदनाएँ है। यह कहानियाँ जीवन के उन तमाम प्रश्नों से जुड़ी है जो दलित जीवन के इर्द-गिर्द फैले हुये है। यह दलित समाज की यातनापूर्ण जिन्दगी का जीवंत दस्तावेज है। इनकी कहानियों में से एक कहानी है ‘छ्तरी’। यह कहानी बच्चे के मनोविज्ञान को उकेरती है। अभाव में पलते दलित परिवार को छतरी बहु मुल्यवान है। वह वर्षा में किताबों को भिगकर नष्ट होने से बचायेगी। इस कहानी में छतरी को प्रतीक के रूप में ले सकते हैं। इस छतरी को मास्टर ईश्वर चंद तोड देते है। यह तोडना अनायास नहीं है। क्योंकि जो भी दलितों को सुरक्षा देगा, छाया देगा, सपने बुनने में सहयोग देगा उसे सवर्ण समाज तोड देगा ही । यह सामाजिक व्यवस्था को पोसनेवाले व्यक्ति के अंदर छिपी वास्तविक विचार धारा को दर्शाती है। 

वाल्मीकि जी की इन कहानियों में एक प्रश्न छिपा है क्यों स्कूल- कालेज का पहला दिन हो, नौकरी की ज्वाईंनिंग हो, किराए के मकान की तलाश हो, या यात्रा के दौरान किसी से परिचय या कही पहली मुलाकात, हर जगह पर जाति को पूछा जाता है। इस दंश से आदमी कितना घायल होता है इसे तो वही भोक्ता ही जाने। जैसे मुक्तिबोध जी ने एक जगह पर कहा है कि “ लोहे का स्वाद लुहार और घोड़ा ही जाने जिसके मुँह में लगाम लगा होता है”। यह बात दलितों पर लादे हुए बंधनों पर पूरी तरह से खरी उतरती है। 

इनका साहित्य आनंद प्रदान करने वाला साहित्य नहीं है । न हीं इसमें आदेशात्मकता है । यह सामाजिक साहित्य, समाज के लिए, प्रस्तुत है, और इसकी प्रेरणा सबसे पहले दलित समाज के लिए है। जिसमें भविष्य चिंतन सम्मिलित है। आत्मकथा के संदर्भ में कहा जाय तो वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ की खास जगह है। यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति के अनेक बिंदुओं को सिर्फ छुति ही नहीं बल्कि दलित जीवन संबंधी प्रश्न उपस्थित करती है। दलित जीवन की जो पीड़ाएँ और ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्ति में स्थान नहीं पा सके इस आत्मकथा में दर्ज हुए है

संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह मनुष्य का ही एक लघु रूप होता है। परंतु हिन्दू धर्म में बनी जाति-धर्म की विचार धारा या मान्यताओं के अनुसार उसका रूप बदलने में देर नही लगती और बहूत कम समय में वह किसी जाति या धर्म का हो जाता है। इसी के साथ समाज में उच - नीच का स्थान भी तय हो जाता है। अपने देश में समाजिक समानता या असमानता का आधार हमेशा से जातिगत रहा है। सामाजिक संदर्भ में ‘जूठ़न’ का प्रथम परिवेश सामाजिक और दूसरा आर्थिक है । लेखक ने आत्मकथा में अपना मंतव्य देते हुए लिखा है - “अस्पृशता का ऐसा माहौल कि कुत्ते,बिल्ली, गाय, भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चुहड़े का स्पर्श हो जाय तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इन्सानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। इस्तेमाल करों दूर फेकों”। यहाँ पर लेखक इन्सानियत पर प्रश्न करते नजर आते है। इससे स्पष्ट होता है कि दलितोंध्दार की मुहिम मात्र घोषणा बनकर रह गई है। आत्मकथा में वर्णित जीवन अनुभव बहुत दारूण है । उन्ही के शब्दों में “फेंक दिया जाने वाला मांड हमारे लिए गाय के दूध से ज्यादा मूल्यवान था”। यहाँ स्पष्ट होता है की दलितों के लिए दूध एक सपना था। लेखक ने एक जगह पर प्रश्न किया है कि “महाभारत में व्यास का ध्यान द्रोण की गरीबी पर गया। उसने अपने पुत्र को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया और हमें चावल का मांड । फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया? किसी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा? यह व्यक्तिगत अनुभव की बात होने पर भी इस में एक सामाजिक दृष्टिकोण भरा हुआ है । आत्मकथा में पीड़ा और शोषण के वर्णन के साथ ही विरोध के स्वर भी तेज हुए है । एक ही देश और समाज में रहनेवाले सदैव अपने काम आनेवाले समाज के एक वर्ग को कर्म के अधार पर हीन बताकर लताड़ना, यह सिर्फ दलित समाज की अवन्नती का प्रश्न नहीं हैं बल्कि पूरे मानव समाज और राष्ट्र से जुड़ा हुआ प्रश्न है। इनकी एक और रचना है ‘सफाई’ देवता इस कृति में समाज के सबसे उपेक्षित तबके ‘भंगी’ की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ मौजूद वास्तविक स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया है। वह इस कृति के माध्यम से प्रश्न करते है की- कितने आश्चर्य की बात है कि परिसर को स्वच्छ और साफ रखनेवाले मनुष्य को उसी समाज में जिसे वह रहने लायक बनाता है उसे पशुओं से भी नीचे गिना जाता है। समाज के लिए जो सबसे ज्यादा उपयोगी है वही निकृष्ट और त्याज्य क्यों है? इस में लेखक परंपरागत मानसिकता को बदलने की बात करते है । साथ ही इस कृति में कर्मचारियों की समस्याओं पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस रचना का उद्देश सफाई कर्मचारीयों के ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है। साथ ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आकलन और उनके सामने खड़ी समस्याओं का विवेचन भी।

वाल्मीकि जी की रचनओं में एक और रचना है। ‘दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’। इसमें लेखक ने परंपरागत सौंदर्य शास्त्र की व्याख्या को पूरी तरह से खारीज कर दिया है। जैसे प्रेमचंद ने कहा था “ हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी और हमें निश्चय ही विलासिता के मीनार से उतरकर बच्चोवाली कालीरूपवती का चित्र खींचना होगा जो बच्चे को खेत की मेड पर सुलाकर पसीना बहा रही है”। इसमें दलित साहित्य की शोच और दृष्टि व्याख्यायित हो चुकी है। इस में लेखक ने साबीत किया है कि यह साहित्य कला के लिए नहीं बल्कि जीवन और जीवन जीने की जिजिविषा का साहित्य है। इसके अंदर छिपी प्रतिबध्दता ही इसका सौंदर्य विधान है। 

इनके संपूर्ण साहित्य में वैचारिकता के स्थान पर एक सामाजिक दृष्टिकोन और समता मूलक समाज निर्माण के साथ मानविय मूल्यों को नष्ट होने से बचाने का प्रयास विद्यमान है।