हिन्दी साहित्य में दलित धारा को आधार रूप प्रदान करने वाले लेखक और विमर्शक साथ ही दलित समाज का दुख और यातनाओं को बिना नाटकीयता का सहारा लिए अपनी भूमिका निभाने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि जी दलित साहित्य के मूर्द्धन्य हस्ताक्षर थे। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से दलित समाज को वाणी दी है। इनका सारा साहित्य वास्तविकता का दर्शन कराते हुए समाज की आँखे खोलने का काम करता है। इन्होंने साहित्य के माध्यम से दलित समाज का अपमान और दुखद भरी जिन्दगी जीने की मजबूरी के खिलाफ अपनी जंग जारी रखी। दलित समाज की वेदना ही इनके साहित्य की जन्मदात्री रहीं है। भारतीय समाज की जाति - व्यवस्था में दलित जाति से मुक्ति का प्रश्न इनके साहित्य के माध्यम से सामने आता है। साथ ही परंपरावादी समिक्षक दलित साहित्य के अस्तित्व को नकारने की कोशिश में लगे रहे उन्हे मुँह तोड़ जवाब भी देता है। उनके साहित्यिक यात्रा में कविता, कहानी, आत्मकथा, आलोचना, विचारोत्तेजक कृति और नाटक (दो चेहरे) आदी समिल्लित है।
मनुष्य को इन्सानियत की राह से भटकानेवाला कारण अगर कोई हो सकता है तो वह है अस्पृशता की विचारधारा। यह बात तो सांप्रदायिक द्वेष से भी भयानक और समाज के लिए अहितकर है। क्योंकि इस तरह की मानसिकतावाला व्यक्ति या वर्ग अपने ही समाज में फूट डालकर सामाजिक एकता में बाधा उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में उच-नीच की विचार धारा के चलते मानव- मानव के बीच जो दूरियाँ और खाई उत्पन्न हुई, इससे सबसे अधिक नुकसान अगर किसी का हुआ तो वह देश का है। भारतीय समाज में वर्ण –व्यवस्था के आधार पर जो समाज का बंटवारा हुआ, उसकी ही देन है जातिभेद जो असमानता, वर्चस्व और शोषण पर आधारित है।
वाल्मीकि जी का साहित्य स्वानुभूति की चेतना हैं। इसीलिए वह सहानुभूति को जगह नहीं देती । इनका साहित्य स्वयं और समाज के सामने उपस्थित किया जाने वाला प्रश्न हैं - कि दलित व्यक्ति भी सभी मनुष्य तरह मनुष्य ही है और सभी की तरह उसे भी आगे बढ़ने व अवरसों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए वह क्यों नही है?
वाल्मीकि जी की कविता के संदर्भ में कहा जाय तो इनकी कविता का स्थल अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की स्मृति है। यहाँ जीवन की स्मृतियाँ लौटकर आती है। कविता में जीवन की पीड़ा शब्दबद्ध होकर सामाजिक यथार्थ के आलोक में सामाजिक परिवर्तन की इच्छा दर्शाती है। जीवन संघर्ष के साथ – साथ मानसिक उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए चिंतन भी करती है। जो साहित्य जीवन यथार्थ से जुड़ा है इस में मन को गुदगुदानेवाली बाते न होना स्वाभाविक ही है। वर्ण व्यवस्था से पीड़ित समुदाय की वेदना ही इनकी कविता का स्वर है। यह अस्मिता की तलाश के साथ –साथ अस्तित्व के लिए जूझते सरोकारों को रेखांकित करती है। जैसे “जंगलो, पहाड़ो, नदियों और नालों में खोज रही है, गत और विगत बीच की मौन शिलाएँ”(सदियों का संताप काव्य संग्रह) जातिवादी परंपरा को पोसने वाले और जन्म के आधार पर दलित वर्ग का शोषण करने वाले पुरोहितों को कवि प्रश्न करता है की – ‘चूहड़े या डोम की आत्मा ब्रम्ह का अंश क्यों नही है , मैं नहीं जानता, शायद आप जानते हों ? समाज की सदा सेवा करते रहें किसी के रास्ते में कभी अडचन पैदा नहीं की फिर भी हम अछूत रहे। इस बात की शिकायत उनके काव्य में स्पष्ट दिखाई देती है। शोषण और अपमान के कारण अपनी कविता में एक जगह अछूत होने की इस पीड़ा को भी व्यक्त करते हुये वह प्रश्न करते है की – ‘ नहीं बोएँ काँटे, बाँटे सिर्फ शगुन प्यार के। फिर भी रहे अछूत’। यातना जनित विक्षोभ और यथार्थ को संभालती हुई हेयबोध से मुक्ति और अस्मिता के निर्माण के लिए वे अपना दुख दर्द लिखते है।
भारतीय समाज में कई तरह के अर्न्तविरोध विद्यमान है। इनमें सबसे अधिक विरोध दलित और सवर्ण कहे जानेवाले समुदायों के बीच में फैला हुआ है। आर्श्चय की बात यह है की समाज की अनिवार्य सेवा से जुडे़ व्यक्ति और समुदायों को हिन्दू समाज ने घृणित और अछूत क्यों बना दिया? यह प्रश्न इनके संपूर्ण साहित्य में उपस्थित है। जाति व्यवस्था अति क्रुर व्यवस्था है। क्योंकि इसका प्रभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक बराबर बना रहता है। इनका साहित्य इसी नियमों के बंधन में घिरे हुए दलित की यातना का चित्र प्रस्तुत करता है। कहानियों के संदर्भ में कहा जाय तो दलित समाज की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कॄतिक क्रिया प्रणालीयों की सच्चाई को उजागर करते हुए दलित समुदाय की पीड़ा और आक्रोश का बेबाक चित्रण प्रस्तुत करते है। इनका पहला कहानी संग्रह ‘सलाम’ जिसमें में कुल चौदह कहानियाँ है । संग्रह की हर कहानी जातीय विशिष्टताओं का यथार्थ पेश कर चुकी है। साथ ही समाज की कड़वी सच्चाई लेकर प्रस्तुत हुई है। इन कहानियों के माध्यम से करोंड़ो दलित जीवन के ऐसे चित्र सामने आते हैं, जिन्हे परंपरागत सामाजिक ढ़ांचे में फिट नहीं किया जा सकता। ‘सलाम’ संग्रह की कहानियों पर शौराज सिंह ‘बेचैन’ ने कहा है “सलाम की कहानियों में दलित जीवन का एक ऐसा यथार्थ है जो परंपरागत साहित्यिक यथार्थ से जुदा है और उस भिन्नता का एहसास कराता है, जो पारंपारिक जीवनदृष्टि और इस नई चेतना के बीच मौजूद है”। इनका दुसरा कहानी संग्रह हैं ‘घुसपैठिये’ जीसमें कुल बारह कहानियाँ है। इन कहानियों का कथ्य उन अमानुषिक स्थितियों, घटनाओं और प्रसंगों से हैं जो नि:संदेह मानवता के नाम पर कलंक है। लेखक इन कहानियों के माध्यम से प्रश्न करता है कि आखिर क्यों हिन्दू समाज व्यवस्था के चक्र में दलितों को कुचल दिया गया? कहानियों की अर्त्नवस्तु लेखक के अनुभव जगत की त्रासदियों और दुखों से उपजी आत्मिक संवेदनाएँ है। यह कहानियाँ जीवन के उन तमाम प्रश्नों से जुड़ी है जो दलित जीवन के इर्द-गिर्द फैले हुये है। यह दलित समाज की यातनापूर्ण जिन्दगी का जीवंत दस्तावेज है। इनकी कहानियों में से एक कहानी है ‘छ्तरी’। यह कहानी बच्चे के मनोविज्ञान को उकेरती है। अभाव में पलते दलित परिवार को छतरी बहु मुल्यवान है। वह वर्षा में किताबों को भिगकर नष्ट होने से बचायेगी। इस कहानी में छतरी को प्रतीक के रूप में ले सकते हैं। इस छतरी को मास्टर ईश्वर चंद तोड देते है। यह तोडना अनायास नहीं है। क्योंकि जो भी दलितों को सुरक्षा देगा, छाया देगा, सपने बुनने में सहयोग देगा उसे सवर्ण समाज तोड देगा ही । यह सामाजिक व्यवस्था को पोसनेवाले व्यक्ति के अंदर छिपी वास्तविक विचार धारा को दर्शाती है।
वाल्मीकि जी की इन कहानियों में एक प्रश्न छिपा है क्यों स्कूल- कालेज का पहला दिन हो, नौकरी की ज्वाईंनिंग हो, किराए के मकान की तलाश हो, या यात्रा के दौरान किसी से परिचय या कही पहली मुलाकात, हर जगह पर जाति को पूछा जाता है। इस दंश से आदमी कितना घायल होता है इसे तो वही भोक्ता ही जाने। जैसे मुक्तिबोध जी ने एक जगह पर कहा है कि “ लोहे का स्वाद लुहार और घोड़ा ही जाने जिसके मुँह में लगाम लगा होता है”। यह बात दलितों पर लादे हुए बंधनों पर पूरी तरह से खरी उतरती है।
इनका साहित्य आनंद प्रदान करने वाला साहित्य नहीं है । न हीं इसमें आदेशात्मकता है । यह सामाजिक साहित्य, समाज के लिए, प्रस्तुत है, और इसकी प्रेरणा सबसे पहले दलित समाज के लिए है। जिसमें भविष्य चिंतन सम्मिलित है। आत्मकथा के संदर्भ में कहा जाय तो वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ की खास जगह है। यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति के अनेक बिंदुओं को सिर्फ छुति ही नहीं बल्कि दलित जीवन संबंधी प्रश्न उपस्थित करती है। दलित जीवन की जो पीड़ाएँ और ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्ति में स्थान नहीं पा सके इस आत्मकथा में दर्ज हुए है
संसार में मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह मनुष्य का ही एक लघु रूप होता है। परंतु हिन्दू धर्म में बनी जाति-धर्म की विचार धारा या मान्यताओं के अनुसार उसका रूप बदलने में देर नही लगती और बहूत कम समय में वह किसी जाति या धर्म का हो जाता है। इसी के साथ समाज में उच - नीच का स्थान भी तय हो जाता है। अपने देश में समाजिक समानता या असमानता का आधार हमेशा से जातिगत रहा है। सामाजिक संदर्भ में ‘जूठ़न’ का प्रथम परिवेश सामाजिक और दूसरा आर्थिक है । लेखक ने आत्मकथा में अपना मंतव्य देते हुए लिखा है - “अस्पृशता का ऐसा माहौल कि कुत्ते,बिल्ली, गाय, भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चुहड़े का स्पर्श हो जाय तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इन्सानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। इस्तेमाल करों दूर फेकों”। यहाँ पर लेखक इन्सानियत पर प्रश्न करते नजर आते है। इससे स्पष्ट होता है कि दलितोंध्दार की मुहिम मात्र घोषणा बनकर रह गई है। आत्मकथा में वर्णित जीवन अनुभव बहुत दारूण है । उन्ही के शब्दों में “फेंक दिया जाने वाला मांड हमारे लिए गाय के दूध से ज्यादा मूल्यवान था”। यहाँ स्पष्ट होता है की दलितों के लिए दूध एक सपना था। लेखक ने एक जगह पर प्रश्न किया है कि “महाभारत में व्यास का ध्यान द्रोण की गरीबी पर गया। उसने अपने पुत्र को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया और हमें चावल का मांड । फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया? किसी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा? यह व्यक्तिगत अनुभव की बात होने पर भी इस में एक सामाजिक दृष्टिकोण भरा हुआ है । आत्मकथा में पीड़ा और शोषण के वर्णन के साथ ही विरोध के स्वर भी तेज हुए है । एक ही देश और समाज में रहनेवाले सदैव अपने काम आनेवाले समाज के एक वर्ग को कर्म के अधार पर हीन बताकर लताड़ना, यह सिर्फ दलित समाज की अवन्नती का प्रश्न नहीं हैं बल्कि पूरे मानव समाज और राष्ट्र से जुड़ा हुआ प्रश्न है। इनकी एक और रचना है ‘सफाई’ देवता इस कृति में समाज के सबसे उपेक्षित तबके ‘भंगी’ की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ मौजूद वास्तविक स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया है। वह इस कृति के माध्यम से प्रश्न करते है की- कितने आश्चर्य की बात है कि परिसर को स्वच्छ और साफ रखनेवाले मनुष्य को उसी समाज में जिसे वह रहने लायक बनाता है उसे पशुओं से भी नीचे गिना जाता है। समाज के लिए जो सबसे ज्यादा उपयोगी है वही निकृष्ट और त्याज्य क्यों है? इस में लेखक परंपरागत मानसिकता को बदलने की बात करते है । साथ ही इस कृति में कर्मचारियों की समस्याओं पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस रचना का उद्देश सफाई कर्मचारीयों के ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है। साथ ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आकलन और उनके सामने खड़ी समस्याओं का विवेचन भी।
वाल्मीकि जी की रचनओं में एक और रचना है। ‘दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’। इसमें लेखक ने परंपरागत सौंदर्य शास्त्र की व्याख्या को पूरी तरह से खारीज कर दिया है। जैसे प्रेमचंद ने कहा था “ हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी और हमें निश्चय ही विलासिता के मीनार से उतरकर बच्चोवाली कालीरूपवती का चित्र खींचना होगा जो बच्चे को खेत की मेड पर सुलाकर पसीना बहा रही है”। इसमें दलित साहित्य की शोच और दृष्टि व्याख्यायित हो चुकी है। इस में लेखक ने साबीत किया है कि यह साहित्य कला के लिए नहीं बल्कि जीवन और जीवन जीने की जिजिविषा का साहित्य है। इसके अंदर छिपी प्रतिबध्दता ही इसका सौंदर्य विधान है।
इनके संपूर्ण साहित्य में वैचारिकता के स्थान पर एक सामाजिक दृष्टिकोन और समता मूलक समाज निर्माण के साथ मानविय मूल्यों को नष्ट होने से बचाने का प्रयास विद्यमान है।
विचारोत्तेजक लेख !
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